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________________ 254 // 1-1-5-8 (47) श्राराज श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है... और अचेतन में ऐसा कभी नहिं होता है... तथा जिस प्रकार यह मनुष्यका शरीर स्तनपान, शाक, चावल आदि आहारको ग्रहण है, वैसे हि वनस्पतिका शरीर पृथ्वी, जल, आदिका आहार ग्रहण करता है... यह आहार ग्रहणकी क्रिया अचेतनमें नहिं दिखाई देती है... तथा जिस प्रकार- यह मनुष्यका शरीर अनित्य है, हमेशां एकसा रहता नहिं है, वैसे हि यह वनस्पति-शरीर भी मर्यादित आयुष्यवाला होनेसे अनित्य हि है... वह इस प्रकारवनस्पतिकाय-जीवोंका अधिकसे अधिक दश हजार वर्षका आयुष्य होता है और कमसे कम अंतमुहूर्त (आंखके पलकारे जितना) आयुष्य होता है... तथा जिस प्रकार यह मनुष्यका शरीर प्रतिक्षण आवीची-मरण (आयुष्य कर्मदलके भुगतान स्वरूप निर्जरण) के स्वरूप मरनेके कारणसे अशाश्वत है, वैसे हि वनस्पति-शरीर भी अशाश्वत है... तथा जिस प्रकार यह मनुष्यका शरीर इष्ट आहारकी प्राप्तिसे वृद्धि स्वरूप चय (पुष्ट) होता है और अनिष्ट आहारकी प्राप्तिसे हानिस्वरूप अपचय (दुर्बल) होता है.... तथा जिस प्रकार- यह मनुष्यका शरीर विविध रोगसे पांडुपना (फिक्का पडना) उदरवृद्धि (जलोदर) शोफ (सूजन) शोथ, कृशत्व (दुर्बलता - सुखना) इत्यादि अथवा बालयौवन आदि विविध परिणामवाले होतें हैं और रसायन, तैल आदिके उपयोगसे विशिष्ट कांति, बल, आदिकी पुष्टि स्वरूप विविध परिणामको पातें हैं वैसे हि यह वनस्पतिशरीर भी विविध रोगोके कारणसे पष्प. फल. त्वक (छाल) आदि विकति होते हैं, तथा विशिष्ट अभिलाषा स्वरूप दोहदको देनेसे पुष्प-फल आदिका उपचय (पुष्टि) भी होती है... . इस प्रकार कहे गये धर्मो-लक्षणोंसे वनस्पतिकाय-वृक्ष सचेतन हि है, इसमें कोई संशय न रखें... इस प्रकार वनस्पतिमें चैतन्यकी सिद्धि करके अब उनके आरंभ (वध) में कर्मबंध तथा आरंभके परिहार स्वरूप विरतिके आसेवनसे (साधुत्व) मुनिपना दिखाते हुए एवं उद्देशकका उपसंहार करते हुए, इस उद्देशकका अंतिम सूत्र सूत्रकार महर्षि अब कहेंगे... VI सूत्रसार : ___ प्रस्तुत सूत्र में वनस्पति की सजीवता को सिद्ध करने के लिए उसकी मनुष्य शरीर के साथ तुलना की गई है और यह स्पष्ट कर दिया है कि- जो धर्म या गुण मनुष्य के शरीर में पाए जाते हैं, वे ही धर्म वनस्पति के शरीर में भी परिलक्षित होते हैं / मनुष्य शरीर की चेतनता प्रायः सभी विचारकों को मान्य है / अतः मनुष्यमें उपलब्ध /
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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