________________ 252 #1 - 1 - 5-8 (47) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रत शन विपरिणामधर्मकं एतदपि विपरिणामधर्मकम् // 47 / / III शब्दार्थ : से-तत्त्व का परिज्ञाता / बेमि-मैं कहता हूं / इमंपि जाइधम्मयं-यह मनुष्य शरीर जैसे जाति-जन्म धर्म वाला है, ठीक उसी तरह / एयंपि जाइधम्मयं-यह वनस्पतिकायिक शरीर भी जन्म धर्म वाला है / इमंपि वुड्ढिधम्मयं-जैसे मनुष्य शरीर वृद्धि धर्म वाला है, वैसे ही / एयंपि वुढिधम्मयं-वनस्पति का शरीर भी वृद्धि धर्म वाला है / इमंपि चित्तमंतयं-जैसे मनुष्य शरीर चेतना युक्त है, वैसे ही / एयंपि चित्तमंतयं-वनस्पति का शरीर भी चेतना संयुक्त है / इमंपि छिण्णं मिलाइ-जैसे मनुष्य का छेदन किया हुआ-काटा हुआ शरीर मुझा जाता है, वैसे ही / एयंपि छिण्णं मिलाइ-वनस्पति का छेदन किया हुआ शरीर मुझा जाता है / इमंपि आहारगंजैसे मनुष्य आहार करता है, वैसे ही / एयपि आहारगं-वनस्पति भी आहार करती हैं / इमंपि अणिच्चयं-जिस प्रकार मनुष्य का शरीर अनित्य है, उसी तरह / एयंपि अणिच्चयं-वनस्पति का शरीर भी अनित्य है / इमंपि असासयं-जिस प्रकार मनुष्य का शरीर अशाश्वत हैं; उसी तरह / एयंपि असासयं-वनस्पति का शरीर भी अशाश्वत है / इमंपि चओवचड़यं-जिस प्रकार मनुष्य का शरीर चय और उपचय वाला हैं, उसी तरह / एयपि चओवचइयं-वनस्पति का शरीर भी चय-उपचय युक्त हैं / इमंपि विपरिणाम धम्मयं-जैसे मनुष्य का शरीरं विपरिणाम धर्म वाला-अनेक तरह के परिवर्तनों से युक्त हैं, वैसे ही / एयंपि विपरिणामधम्मयं-वनस्पति का शरीर भी परिणमनशील हैं अर्थात विभिन्न प्रकार से बदलने वाला हैं / IV सूत्रार्थ : वह मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूं कि- यह (मनुष्य शरीर) भी जन्म धर्मवाला है, वह (वनस्पतिकाय) भी जन्म धर्मवाला है / यह भी वृद्धि धर्मवाला है, वह भी वृद्धि धर्मवाला है। यह भी सचित्त है, वह भी सचित्त है... यह भी छेदनसे करमाता है, वह भी छेदनसे करमाता है... यह भी आहार लेता है, वह भी आहार लेता है / यह भी अनित्य है, वह भी अनित्य है.. यह भी अशाश्वत है, वह भी अशाश्वत है / यह भी वृद्धि एवं हानिवाला है वह भी वृद्धि एवं हानिवाला है / यह भी विरूप परिणाम धर्मवाला है, वह भी विरुप परिणामके धर्मवाला है।। 47 // V टीका-अनुवाद : प्रत्यक्ष प्रमाणसे जाना जा शके ऐसे वनस्पतिकाय जीवोंको पहचान करके उपलब्ध तत्त्व ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं कि- जिस प्रकार यह शरीर उत्पत्ति धर्मवाला है, वैसे हि वह वनस्पतिकाय-शरीर भी उत्पत्ति धर्मवाला है... और जिस प्रकार यह मनुष्यका शरीर बाल, कुमार, यौवन एवं वृद्धत्व ने परिणामवाला होनेसे स्पष्ट रूपसे सचेतन