________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका म 1-1-4-8 (39) 221 उनके आश्रय में रहे हुए, त्रस जीवों को भी जलाकर भस्म कर देती है / उसकी लपेट में आने वाले जीवों के कुछ नाम गिनाते हुए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि पृथ्वी, तृण, पत्ते, काष्ठ, गोवर एवं कूड़े-करकट में स्थित जीवों को तथा आकाश में उड़ने वाले जीव-जन्तु कभी आग में गिर पड़े तो वह अग्नि, उनके प्राणों का नाश कर देती है / यह स्पष्ट है कि- आग पृथ्वी पर प्रज्वलित होती है और पृथ्वी के आश्रय में जो अनेक जीव रहे हुए हैं / जैसे कि- कृमि, पिपीलिका, कीड़े-मकोड़े, बिच्छू, सर्प, मेंडक तथा वृक्ष, लता वेल आदि के जीव पृथ्वी के आधार ही स्थित है / अतः जब आग लगती है तो इनमें से अनेक जीवों की हिंसा होना संभव है / आग को प्रज्वलित करने में तृण, काष्ठ और गोबर का प्रयोग किया जाता है तथा घर के या गलियों के कूड़े-कचरे को एकत्रित करके उसमें आग लगा दी जाती है / परन्तु इससे अनेक जीवों की हिंसा हो जाती है / क्योंकि- तृण, काष्ठ एवं गोबर के आश्रय में पतंगे, भ्रमर, लट, घृण, कुंथुवे, आदि अनेक जीव-जन्तु रहते हैं और कूड़े-कचरे में तो विभिन्न अस जीव रहते हैं-कीड़े-मकोड़े, पिपीलिका आदि का पाया जाना तो साधारण सी बात है / अतः इनको जलाने में अनेक जीवों की हिंसा हो जाती है। इसके अतिरिक्त जब आग जलती है, तो आकाश में उड़ने वाले मक्खी, मच्छर, भ्रमर एवं अन्य पक्षी गण कभी-कभी उसमें आ गिरते हैं / और अग्नि के जाज्वल्यमान ज्वाला के उष्ण संस्पर्श पाकर उनका शरीर सिकुड़ जाता है, वे तुरन्त मूर्छित होकर प्राण त्याग कर देते हैं / इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, कि- अग्नि का समारम्भ सबसे भयानक है / इसमें छःकाय के जीवों की हिंसा होती है / इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि- अग्नि के समारंभ का परित्याग करें / इसी बात की प्रेरणा देते हुए, सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 8 // // 39 // एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी, नेव सयं अगणिसत्थं समारंभे, नेवडण्णेहिं अगणिसत्थं समारंभावेज्जा, अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणुजाणेज्जा, जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि || 39 // II संस्कृत-छाया : अत्र शसं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, तं परिज्ञाय मेधावी,