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________________ 222 卐१-१-४-८ (39)' श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रक न नैव स्वयं अग्निशस्त्रं समारभे, नैवाऽन्यैः अग्निशस्त्रं समारम्भयेत्, अग्निशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात्, यस्य एते अग्निकर्मसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, सः खु (खलु) मुनिः परिज्ञातकर्मा इति ब्रवीमि || 39 // III शब्दार्थ : एत्थ-अग्निकाय के विषय में / सत्थं-स्वकाय और परकाय रूप शस्त्र का / समारम्भमाणस्स-समारम्भ करने वाले को / इच्चेते-यह / आरम्भा-आरंभ / अपरिण्णाया भवन्ति-अपरिज्ञात हैं / तं-उस अग्नि समारंभ को / परिण्णाय-परिज्ञात करके / मेहावीबुद्धिमान / णेव-नहीं / सयमेव-स्वयमेव / अगणि सत्थं-अग्नि शस्त्र का / समारम्भेज्जासमारंभ करे / णेवऽण्णेहि-न अन्य से / अगणि सत्थं-अग्नि शस्त्र का / समारंभावेज्जासमारंभ करावे / अगणि सत्थं-अग्नि शस्त्र का / समारंभमाणे-समारंभ करने वाले / अण्णेअन्य व्यक्ति का / न समणुजाणेज्जा-अनुमोदन भी न करे / जस्सेते-जिसने यह / अगणि कम्म समारंभा-अग्नि कर्म समारंभ / परिण्णाया-परिज्ञात / भवंति-होते हैं / से ह मुणीनिश्चय पूर्वक वही मुनि / परिण्णाय कम्मे-परिज्ञात कर्मा है / तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूं / IV सूत्रार्थ : अग्निकायमें शस्त्रका समारंभ नहिं करनेवालेने यह सभी आरंभ परिज्ञात कीये है, उन आरंभको जानकर मेधावी (साधु) स्वयं अग्निशस्त्रका आरंभ न करे, अन्यके द्वारा अग्निशस्त्रका समारंभ न करवाये, और अग्निशस्त्रका समारंभ करनेवाले अन्यका अनुमोदन न करे, जीसने यह सभी अग्निकर्मके समारंभ परिज्ञात कीये है वह हि मनी परिज्ञातकर्मा है ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) (हे जंबू !) तुम्हे कहता हुं | // 39 // v टीका-अनुवाद : यहां अग्निकायमें स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र और उभयकायशस्त्र स्वरूप शस्त्रसे पचनपाचनादि स्वरूप आरंभ करनेवालेने कर्मबंधके कारणोंको समझे नहिं है, और अग्निकायशस्त्रका समारंभ नहिं करनेवालेने यह सभी आरंभ परिज्ञात कीये है... अग्निशस्त्रकी परिज्ञा करके मेधावी साधु स्वयं अग्निशस्त्रका समारंभ न करें, अन्यके द्वारा अग्निशस्त्रका समारंभ न करवाये और अग्निशस्त्रके समारंभको करनेवाले अन्योंकी अनुमोदना न करे... जीस मुनिने यह सभी अग्निकर्म समारंभ ज्ञ परिज्ञासे जानकर प्रत्याख्यन परिज्ञासे त्याग कीया है वह हि मुनी परमार्थ दृष्टिसे परिज्ञातकर्मा है... ऐसा हे जंबू ! मैं (सुधर्मास्वामी) तुम्हें कहता हुं...
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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