________________ 220 1 - 1 - 4 - 7 (38) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (घास) एवं पत्तेका आधार लेकर रहे हुए पतंगीये एवं इयल आदि, तथा काष्ठका आश्रय लेकर रह हुए घुणे एवं उद्धेहि चींटीयांके अंडे आदि, तथा गोमयके आश्रय लेकर रहे हुए कंथुवे और पनक याने लील-फुग आदि, तथा कचरा याने तृण पत्र और धुलिका समूह (उकरडे) का आश्रय लेकर रहे हुए कृमि, कीडे, पतंगीये आदि जंतुओकी हिंसा होती है... तथा अपने आप हि उड़कर आकर पडनेवाले मखीयां, भ्रमर, पतंगीये, मच्छर, पक्षी एवं वायु आदिको संपातिम जीव कहतें हैं, वे स्वयं हि जलते हुए अग्निकी ज्वालामें आकर पडतें इस प्रकार पृथ्वीकाय आदिकी निश्रामें रहे हुए जीवोंको पीडा एवं मरण अग्निकायके समारंभसे होता है यह बात सूत्रके पदोंसे हि कहते हैं... कि- रांधना, पकाना, तापना इत्यादि अग्निके उपभोगकी इच्छावाला मनुष्य अवश्य हि अग्निका समारंभ करेगा हि, और अग्निके समारंभमें पृथ्वीकाय आदिके आश्रयमें रहे हुए पूर्वोक्त जीव अब कहेंगे ऐसी मरण. पर्यंतकी अवस्थाको पातें हैं... वह इस प्रकार- अग्निका स्पर्श होते हि कीतनेक जीव मोरके पींच्छेकी तरह गात्र (शरीरके अंगोपांग) के संकोचको पातें हैं, अग्निके स्पर्शसे हि शलभ याने पतंगीये आदि गात्र संकोचको पातें हैं, अग्निका ही यह प्रताप है... अग्निकी गरमीसे अभिभूत हुए ऐसे पतंगीये आदि जीव मूछाको पातें हैं, और मूर्छित हुए ऐसे कृमि, चींटीयां, भंवरे, नेउले (नकुल) आदि जीव, द्रव्य प्राणके त्याग स्वरूप मरणको पातें हैं... इस प्रकार अग्निके समारंभमें केवल (मात्र) अग्निकाय-जीवोंकी हि विराधना-हिंसा होती है, इतना हि नहिं, किंतु अन्य पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोमय एवं कचरे का आश्रय लेकर रहे हुए एवं संपातिम जीवोंका भी विनाश होता है... इसीलिये हि परमात्माने भगवती-सूत्रमें कहा है कि- समान उमवाले दो पुरुष एक-दुसरेके साथ अग्निकायका समारंभ करतें हैं, उनमें एक पुरुष अग्निकायको समुज्ज्वलित (जलाता) करता है, और दुसरा मनुष्य अग्निको बुझाता है, तो अब उन दोनो पुरुषोंमें से कौन पुरुष महाकर्मकारक है और कौन पुरुष अल्प कर्मकारक है ? हे गौतम ! जो पुरुष अग्निको जलाता है, वह महाकर्मकारक है, और जो अग्निको बुझाता है वह अल्पकर्मकारक है... इस प्रकार बहोत जीवोंको पीडा एवं मरण पर्यंतका दुःख देनेवाले अग्निके समारंभको जानकर मन-वचन एवं कायासे तथा करण, करावण और अनुमोदनके द्वारा अग्निके समारंभका त्याग करना चाहिये, यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगेके सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- अग्नि सबसे तीक्ष्ण शस्त्र है / इसकी प्रज्वलित ज्वाला . की लपेट में आने वाला सजीव या निर्जीव कोई भी पदार्थ, अपने रूप में सुरक्षित नहीं रह सकता। वह पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों का विनाश करने के साथ