SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-1-4-7 (38) // 21 I सूत्र // 7 // // 38 / / - से बेमि, संति पाणा पुढवीनिस्सिया, तण निस्सिया, पत्तनिस्सिया, कट्ठनिस्सिया, गोमयनिस्सिया, कयवर-निस्सिया, संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति, अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावज्जंति, ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जंति, ते तत्थ उद्दायंति // 38 // II संस्कृत-छाया : सोऽहं ब्रवीमि, सन्ति प्राणिनः पृथ्वीनिश्रिताः, तृणनिश्रिताः, पत्रनिश्रिताः, काष्ठनिश्रिताः, गोमयनिश्रिताः कचवरनिश्रिताः, सन्ति संपातिमाः प्राणिनः, आहत्य सम्पतन्ति, अग्निं च खलु स्पृष्टाः एके सङ्घातं आपद्यन्ते, ये तत्र सङ्घातं आपद्यन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते, ये तत्र पर्यापद्यन्ते ते तत्र अपदावन्ति // 38 // III शब्दार्थ : से बेमि-वह मैं कहता हूं / संति-विद्यमान हैं / पाणा-प्राणी / पुढविनिस्सि यापृथ्वीकाय के आश्रय में / तणणिस्सिया-तृणों के आश्रित / पत्तणिस्सिया-पत्तों के आश्रित / गोमयनिस्सिया-गोबर के आश्रित / कयवरणिस्सिया-कूड़े-कचरे के आश्रित। संति-विद्यमान हैं / संपातिमा-उड़ने वाले / पाणा-प्राणी / आहच्च-कदाचित् / संपयंति-अग्नि में गिर पड़ते हैं / च-फिर / अगणिं-अग्नि को / पुळा-स्पर्श होते हैं / खलु-निश्चय ही / एगे-कोई | संघायमावज्जंति-शरीर संकोच को प्राप्त होते हैं / ते-वे जीव। तत्थ-वहां पर / परियावज्जति-मच्छित होते हैं / ते-वे जीव / तत्थ-वहां पर / उद्दायंति-प्राणों को छोड़ देते हैं अर्थात् निर्जीव हो जाते हैं / IV सूत्रार्थ : वह मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूं कि- पृथ्वीकी निश्रामें, तृणकी निश्रामें, पत्तेकी निश्रामें, काष्ठकी निश्रामें, गोमयकी निश्रामें और कचरेकी निश्रामें प्राणी-जीवों होतें हैं, संपातिम जीव आकरके अग्निमें पडतें हैं, और अग्निका स्पर्श होनेसे संघात पातें है, संघात पाये हुए वे मूर्छाको पातें है, मूच्छाको पाये हुए वे प्राणोंसे मुक्त होते है | // 38 // v टीका-अनुवाद : अग्निकायके समारंभसे विविध प्रकारके जीवोंकी हिंसा होती है, वह इस प्रकारपृथ्वीकाय स्वरूप और पृथ्वीकायका आश्रय लेकर रह हुए कृमि, कंथुआ, चींटीयां, गंडूपद (गंडोले) साप, मेंढक, बीच्छु और कर्कटक आदि तथा वृक्ष, छोड एवं लता आदि... तथा तृण
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy