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________________ श्री.राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 4 - 1(32) 203 III शब्दार्थ : से-वह-जिसने सामान्य रूप से आत्म तत्त्व, पृथ्वीकाय और अप्काय के जीवों का वर्णन किया है, वही मैं / बेमि-कहता हूं / सयं-अपनी आत्मा के द्वारा। लोगं-अग्निकाय रूप लोक का / णेव अभाइक्खेज्जा-अपलाप न करे / अत्ताणं-आत्मा का / णेव अब्माइपखेज्जा-निषेध या अपलाप न करे / जे-जो व्यक्ति। लोयं-अग्निकाय रूप लोक का / अब्भाइयखइ-निषेध करता है / से-वह / अत्ताणं-आत्मा का | अब्भाइक्खइ-निषेध करता है / जे-जो / अत्ताणं-आत्मा का / अब्भाइक्खड़-निषेध करता है / से-वह / लोयं-अग्निकाय रूप लोक का। अभाइक्खड़-निषेध करता है / IV सूत्रार्थ : वह मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूं कि- खुद स्वयं कभी भी लोक = अग्निकायका अपलाप न करें, और आत्माका भी अपलाप न करें... जो (मनुष्य) लोक = अग्निकायका अपलाप करता है, वह आत्माका अपलाप करता है, और जो आत्माका अपलाप करता है वह लोकका अपलाप करता है | // 32 / / v टीका-अनुवाद : जिन्होंने आपके आगे सामान्यसे आत्मा तथा पृथ्वीकाय एवं अप्कायका स्वरूप वर्णन किया है वह हि मैं (सुधर्मास्वामी) अब आपको अग्निकाय जीवोंका स्वरूप (जीवके स्वरूपकी उपलब्धिसे उत्पन्न हुए हर्षवाला एवं अविच्छिन्न ज्ञान प्रवाहवाला मैं वह सुधर्मास्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं... कि- अग्निकाय-लोकका खुद स्वयं कभी भी अपलाप न करें... क्योंकिअग्निकायका अपलाप करनेमें ज्ञानादि गुणवाले आत्माका भी अपलाप हो जाता है... और आत्माकी सिद्धि तो हमने पूर्व (पहले) कर दी है, अतः आत्माका अपलाप करना योग्य नहिं है... इसी प्रकार अग्निकायकी भी सिद्धि हो जानेके बाद अब अग्निकायका अपलाप करना उचित नहिं है... यदि युक्ति एवं आगम प्रमाणसे प्रसिद्ध ऐसे अग्निकायका अपलाप करनेसे 'अहं' मैं पदसे अनुभव गम्य आत्माका भी अपलाप आपको प्राप्त होगा... यदि आप कहोगे कि"भले! ऐसा हि हो' किंतु हम कहतें हैं कि- ऐसा नहिं होगा... वह इस प्रकार- शरीरमें रहे हुए, ज्ञानगुणवाले एवं हर एक व्यक्तिको अनुभव गम्य ऐसे आत्माका अपलाप नहिं कर शकतें... क्योंकि- (1) यह आत्मा इस शरीरमें रहता हुआ इस शरीरका निर्माण करता है, तो इस शरीरको जो बनाता है और इस शरीरमें जो रहता है वह आत्मा हि है... (2) इस शरीरको बनानेवाले (आत्मा) को यह शरीर व्यक्त = प्रत्यक्ष हि है... इत्यादि हेतुओंसे आत्माकी सिद्धि हमने पहले पृथ्वीकायके अधिकारमें कर दी है, अतः सिद्ध बातका पुनः कथन पिष्टपेषणकी तरह विद्वद्-जनोंको इष्ट नहिं है...
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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