________________ 202 1 -1-4 - 1 (32) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पृथ्वी (धूली) अप्काय (जल) तथा आर्द्र वनस्पति और सकाय जीवों सामान्यसे बादर . अग्निकायके शख होतें हैं... अब विभागद्रव्य शस्त्र कहतें हैं... नि. 124 स्वकायशस्त्र- अग्निका अग्नि हि शस्त्र होता है... जैसे कि- तृणका अग्नि पत्तेके अग्निका शस्त्र बनता है... परकायशस्त्र- जल, वायु आदि अग्निके शस्त्र बनतें हैं... उभयकायशस्त्र- तुष एवं करीष (बकरेकी लीडीयां) आदिसे मिश्रित अग्नि. अन्य अग्निका शस्त्र होता है... यह सभी द्रव्यशास्त्रके प्रकार बतलाये है... अब भावशस्त्र कहतें हैं... दुष्ट मन वचन एवं कायाके व्यापार (चेष्टा) स्वरूप असंयम हि भावशस्त्र है... यहां तक कहे गये द्वारोंके अलावा जो द्वार कहने बाकी रहे हैं उनका अतिदेश (हवाले) के द्वारा उपसंहार करते हुए नियुक्तिकार कहतें हैं कि- . नि. 125 बाकीके द्वार पृथ्वीकायके उद्देशकमें कहे गये प्रकारसे यहां अग्निकायमें भी समझ लीजीयेगा... अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुणों से युक्त सूत्रका उच्चार करना चाहिये... और वह सूत्र सूत्रकार महर्षि अब कहेंगे... I सूत्र // 1 // // 32 // से बेमि, नेव सयं लोगं अभाइयखेज्जा, नेव अत्ताणं अभाइयखेज्जा, जे लोगं अभाइयखड़ से अत्ताणं अब्भाइक्खड़, जे अत्ताणं अभाइक्खड़ से लोगं अमाइक्खड़ // 32 // II संस्कृत-छाया : सोऽहं ब्रवीमि, नैव स्वयं लोकं अभ्याचक्षीत, नैव आत्मानं अभ्याचक्षीत (प्रत्याचक्षीत) यः लोकं अभ्याख्याति सः आत्मानं अभ्याख्याति, यः आत्मानं अभ्याख्याति सः लोकं अभ्याख्याति // 32 //