________________ 204 1 -1-4-1(32) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस प्रकार आत्माकी तरह सिद्ध अग्नि-काय-जीवोंका जो साहसिक (मूर्ख) अपलाप करता है, वह आत्माका भी अपलाप करता है, और जो मनुष्य आत्माका अपलाप करता है, वह अग्निकाय-लोकका भी अपलाप करता है... विशेष सदैव सामान्य पूर्वक हि होतें हैं... अतः सामान्य स्वरूप आत्माके होने पर हि विशेष ऐसे पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय आदिकी सिद्धि हो शकती है, आत्माके न होने पर नहिं... क्योंकि- सामान्य व्यापक होता है.. विशेष व्याप्य होता है... व्यापक न होने पर व्याप्यकी भी अवश्यमेव निवृत्ति (अभाव) हि होती है... इस प्रकार सामान्य स्वरूप आत्माकी तरह विशेष स्वरूप अग्निकाय-जीवोंका भी अपलाप नहिं करना चाहिये... अग्निकाय-जीवोंकी सिद्धि करनेके बाद अब अग्निकायके समारंभसे होनेवाले कटुक (कडवे) फलोंके परिहार (त्याग) के लिये, सूत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वी और पानी की तरह अग्नि को भी सचित्त-सजीव बताया है / अग्निकाय के जीव भी पृथ्वी-पानी की तरह प्रत्येक शरीरी, असंख्यात जीवों का पिण्ड रूप और अंगुल के असंख्यातवें भाग अवगाहना वाले हैं / उनकी चेतना भी स्पष्ट परिलक्षित होती है / क्योंकि उसमें प्रकाश और गर्मी है और ये दोनों गुण चेतनता के प्रतीक है / जैसे जुगनू में जीवित अवस्था में प्रकाश पाया जाता है, परन्तु मृत अवस्था में उसके शरीर में प्रकाश का अस्तित्व नहीं रहता / अतः प्रकाश जिस प्रकार जुगनू के प्राणवान होने का प्रतीक है, उसी प्रकार अग्नि की सजीवता का भी संसचक है / __हम सदा देखते हैं कि जीवित अवस्था में हमारा शरीर गर्म रहता है / मृत्यु के बाद शरीर में ऊष्णता नहीं रहती / और ज्वर के समय जो शरीर का ताप बढ़ता है, वह भी जीवित व्यक्ति का बढ़ता है / अस्तु शरीर में परिलक्षित होने वाली ऊष्णता सजीवता की परिसूचक है / इसी तरह अग्नि में प्रतिभासित होने वाली ऊष्णता भी उसकी सजीवता को स्पष्ट प्रदर्शित करती है। ऊष्णता और प्रकाश ये दोनों गुण अग्नि की सजीवता के परिचायक हैं इसके अतिरिक्त अग्नि, वायु के बिना जीवित नहीं रह सकती / जिस प्रकार हमें यदि एक क्षणं के लिए हवा न मिले तो हमारे प्राण-पंखेरू उड़ जाते हैं, उसी तरह अग्नि भी वायु के अभाव में