________________ 196 // 1-1 - 3 -13 (3१)卐 श्री राजे द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आरंभ जन्य कर्म बन्धन को जानकर / मेहावी-बुद्धिमान पुरुष / नेव-न तो / सयं-स्वयं। उदयसत्थं-उदक शस्त्र का / समारंभेज्जा-समारंभ करे। णेवण्णे-और न अन्य से / उदय सत्थं-अप्काय के शस्त्र का / समारंभावेज्जा-समारम्भ करावे / अण्णे-दूसरों का / न समणुजाणेज्जा-अनुमोदन-समर्थन भी न करे / जस्सेते-जो व्यक्ति इन सब / उदय सत्थं समारंभा-अप्काय के शस्त्र समारम्भ से / परिणाया भवंति-परिज्ञात होता है / से ह मुणीवही मुनि वास्तव में / परिण्णाय कम्मे-परिज्ञात कर्मा होता है / तिबेमि-एसा मैं कहता हूं। IV सूत्रार्थ : यहां अप्कायमें शस्त्रका समारंभ करनेवाले मनुष्यने इन सभी समारंभोंको जाना-समझा नहिं है, और यहां शस्त्रका समारंभ नहि करनेवाले मुनिने ये सभी आरंभ परिज्ञात कीये हैं, उस परिज्ञाको करके मेधावी (मुनि) खुद स्वयं उदक-शस्त्रका समारंभ न करे, अन्यके द्वारा उदकशस्त्रका समारंभ न करवाये, और उदकशस्त्रका समारंभ करनेवाले अन्यका अनुमोदन भी न करें... जीस मुनीने यह सभी उदकशस्त्र समारंभ परिज्ञात कीये है, वह हि मुनि परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हुं... | // 31 // V टीका-अनुवाद : इस अप्काय-जीवोंमें द्रव्य एवं भाव शस्त्रका समारंभ करनेवाले मनुष्यने, यह सभी समारंभ कर्म-बंधके कारण है ऐसा समझा-जाना नहि है... और यहां अप्कायमें शस्त्रका समारंभ नहिं करनेवाले मुनिने यह सभी समारंभ ज्ञ परिज्ञासे जाना-समझा है, और प्रत्याख्यान परिज्ञासे उन समारंभोंका त्याग कीया है... जो मुनि "उदक (जल) का समारंभ कर्मबंधका कारण है" ऐसा जानकर साधु-मर्यादामें रहा हुआ है ऐसा मुनि खुद स्वयं उदकशस्त्र का समारंभ न करे, अन्यके द्वारा उदकशस्त्रका समारंभ न करवाये. और उदकशस्त्रका समारंभ करनेवाले अन्यकी अनुमोदना भी न करे... जिस मुनिने इन सभी उदक-जल के शस्त्रका समारंभ दो प्रकारकी परिज्ञासे जानकर त्याग कीये है, वह हि मुनि परिज्ञातकर्मा है... ऐसा मैं (सुधर्मास्वामीजी) तुम्हे (जंबूस्वामीजी को) कहता हुं... VI सूत्रसार : ___ जो व्यक्ति अप्काय के आरम्भ-समारम्भ में आसक्त रहता है, वह उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता है और न उसके कटु फल से ही परिचित है / यदि उसको इसका परिज्ञात होता है तो वह आरम्भ-समारम्भ से बचने का प्रयत्न करता, इस लिए जिस व्यक्ति को अप्काय के आरम्भ-समारम्भ एवं उसके परिणाम स्वरूप मिलने वाले कटु फल का परिज्ञात है, वह उसमें प्रवृत्ति नहीं करता है / इसी बात को सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताया है / और अप्काय के आरम्भ-समारम्भ में आसक्त व्यक्ति को अपरिज्ञातकर्मा कहा है और उसके