________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-3-13 (31) 195 की शुद्धि के लिए अहिंसा, दया, सत्य, संयम और सन्तोष रूपी भाव स्नान आवश्यक हैं / * इस लिए साधु को सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के जल से द्रव्य स्नान में प्रवृत्त न होकर, भाव स्नान में ही संलग्न रहना चाहिए / वैदिक परम्परा के ग्रंथों में भी ब्रह्मचारी के लिए स्नान आदि शारीरिक शृंगार का निषेध किया गया है / रही प्रतिदिन आवश्यक शुद्धि की बात / उसे साधु अचित्त पानी से विवेक पूर्वक कर सकता है / स्नान नहीं करने का यह अर्थ नहीं है कि वह अशचि से भी लिपटा रहे / उसका तात्पर्य इतना ही है कि वह अपना सारा समय केवल शरीर के शृंगारने में ही न लगाए / परन्तु यदि कहीं शरीर एवं वस्त्र पर अशुचि लगी है तो उसे अचित्त जल से विवेक पूर्वक साफ कर ले / इस तरह अप्काय में विवेक रखने वाला ही अप्काय के आरम्भ-समारम्भ से बच सकता है, पानी के जीवों की रक्षा कर सकता है / इस लिए वही वास्तव में अनगार है, मुनि है, त्यागी साधु है / इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र. // 13 // // 31 // एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं उदयसत्थं समारंभेज्जा, नेवण्णेहिं उदयसत्थं समारंभावेज्जा, उदयसत्थं समारंभंतेऽवि अण्णे न समणुजाणेज्जा, जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिण्णाया. भवंति, से हु मुणी परिण्णातकम्मे त्ति बेमि // 31 // II संस्कृत-छाया : एतस्मिन् थसं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाताः भवन्ति, एतस्मिन् शसं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, तां परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं उदकशखं समारभेत, नैवान्यैः उदकशां समारम्भयेत्, उदकशखं समारभमाणान् अपि अन्यान् न समनुजानीयात्, यस्य एते उदकशससमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा इति ब्रवीमि || 31 // III शब्दार्थ : एत्थ-इस अपकाय में / सत्थं-द्रव्य और भाव रूप शस्त्र का / समारम्भमाणस्सआरंभ करने वाले को / इच्चेए-ये सब / आरम्भा-आरंभ-समारम्भ / अपरिण्णाया-अपरिज्ञातकर्म रूप बन्धन के ज्ञान और परित्याग से रहित / भवंति-होते हैं। एत्थ-इस अप्काय में। सत्थं-द्रव्य और भाव शस्त्र का / असमारम्भमाणस्स-समारम्भ न करने वाले को / इच्चेतेये सब / आरम्भा-आरंभ-समारंभ / परिणाया-परिज्ञात। भवंति-होते हैं। तं-परिण्णाय-इस