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________________ // 1-1-3-12(30)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यही हि भाव-शौच (पवित्रता) है और यह भावशौच हि कर्म-मलको दूर करनेमें समर्थ है... यह भावशौच जलसे प्राप्त नहिं होता... क्योंकि- सदैव हि जलमें रहनेवाले मत्स्य (मच्छलीयां आदि जलचर जंतुओ कभी भी मच्छली-आदिके कारण स्वरूप कर्मोका नाश नहिं कर शकतें... यह अन्वय दृष्टांत कहा... अब व्यतिरेक दृष्टांत कहतें हैं कि- जलके बिना हि महर्षि-साधुलोग विविध प्रकारकी तपश्चर्याक द्वारा कर्म-मलको दूर करते हैं... अतः यह बात निश्चित हुई किआपका शाख कोइ भी सत्य का निश्चय करने में समर्थ नहिं है... इस प्रकार निर्दोष रूपसे अप्काय जीव स्वरूप हि है, ऐसा प्रतिपादन (कह) करके अप्काय के उपभोगके विषयमें प्रवृत्ति और निवृत्ति स्वरूप दो विकल्पोंके फल दिखाने के माध्यमसे इस तृतीय उद्देशकका उपसंहार करते हुए संपूर्ण उद्देशकका अर्थ (सार) सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : ___ तत्त्व का निर्णय करने के लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह के ज्ञान प्रमाण माने गए हैं / अनुमान आदि प्रमाणों के साथ आगम प्रमाण भी मान्य किया गया है। परंतु आगम वही मान्य है. जो आप्त पुरुष द्वारा कहा गया हो / क्योंकि उसमें विपरीतता नहीं रहती / इस कसौटी पर कसकर जब हम आजीविक आदि परम्पराओं के आगम को परखते हैं, वे सर्वज्ञ कथित प्रतीत नहीं होते / यथार्थ वक्ता को आप्त कहते हैं / क्योंकि उसमें रागद्वेष नहीं होता, अपने पराए का भेद नहीं होता, कषायों का सर्वथा अभाव होता है और उसके ज्ञान में पूर्णता होती है / और उसका प्रवचन प्राणिजगत के हित के लिए होता है / परन्तु जो आप्त नहीं होते है, उनके विचारों में एकरूपता, स्पष्टता, सत्यता एवं सर्व जीवों के प्रति क्षेमकरी भावना नहीं होती / इस दृष्टि से जब हम जैनेतर आगमों का अवलोकन करते हैं, तो वे प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध जीवों की सजीवता के विषय में सही निर्णय नहीं कर पाते / इससे परिलक्षित होता है कि उनमें सर्वज्ञता का अभाव है / क्योंकि- प्रथम तो उन्हें अप्कायिक जीवों के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं है / और दूसरा, उनमें राग-द्वेष का सद्भाव है / इसी कारण वे अप्काय के जीवों का आरम्भ-समारम्भ करने का उपदेश देते हैं / इस तरह उनके द्वारा प्ररूपित आगम आप्त वचन नहीं होने से प्रमाणिक नहीं है और इसी कारण से उनके शास्त्र, किसी निर्णय पर पहुंचने में असमर्थ है / विभूषा-स्नान आदि के लिए सचित्त जल का उपभोग करना किसी भी तरह उचित नहीं है / स्नान भी एक तरह का शृंगार है, और साधु के लिए शृंगार करने का निषेध किया गया हैं / क्योंकि- द्रव्य स्नान से केवल चमड़ी साफ होती है, आत्मा की शुद्धि नहीं होती / आत्मा
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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