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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1 - 3 - 12 (30) 113 के अनुसार जो अपकायके उपभोगमें प्रवृत्त हुए हैं, यह बात स्याद्वादकी युक्तिसे निराश कीया है... वह इस प्रकार- कुमतवालोंकी युक्तियां एवं उनके शास्र अप्कायके उपभोगकी बातको निश्चित नहिं कर शकतें... जिनमत उन्हें प्रश्न करता है कि- कौन वह आपका शास्त्र है कि- जिसके आदेशसे आपको अप्कायका आरंभ (उपभोग) कल्पता है ? कुमत वाले कहतें हैं कि- विशिष्ट अनुक्रमसे लिखे हुए अक्षर-पद-वाक्यका समूह हि, हमारा आगम आप्त प्रणीत है... और वह नित्य तथा अकर्तृक है... अब कुमतवालोंने माने हुए आप्त पुरुषका निराकरण करना चाहिये... वह इस प्रकारआपका माना हुआ आप्त पुरुष वास्तवमें अनाप्त है... (आप्त नहिं है) क्योंकि- उन्होंने अप्काय जीवोंको पहचाना नहिं है, अथवा तो जल के उपभोगका आदेश देने के कारणसे, वे भी आपकी तरह अनाप्त हि है... क्योंकि- हमने अप्कायमें जीव की सिद्धि पहले कर दी है... इसलिये उन्होंने कहे हुए आगम-शास्त्र धर्मका नाश करनेवाले होनेके कारणसे तथा रथ्या-(अबुध) पुरुषकी तरह अनाप्तसे प्रणीत होनेके कारणसे अप्रमाण (अमान्य) हि है... अब नित्य एवं अकर्तृक शास्त्र है, ऐसा मानने = स्वीकारने वाले कुमतवादीओंको जिनमत कहता है कि- आपके शास्त्रको नित्य कहना अशक्य है, क्योंकि- आपने माने हुए शास्त्र वर्ण (अक्षर), पद एवं वाक्य स्वरुप है. अतः सकर्तक हि है... क्योंकि- आपन दोनोंको मान्य सकर्तृक ग्रंथ-संदर्भकी तरह, विधि एवं प्रतिषेध स्वरूप हि शास्त्र आपको भी मान्य तो हैं... . . अथवा तो स्वीकार कर लें तो भी हम कहतें हैं कि- आकाश की तरह नित्य ऐसे आपके शास्त्र अप्रमाण (अमान्य) हि है... क्योंकि- प्रत्यक्ष आदि की तरह जो अनित्य है, वह हि प्रमाण (मान्य) है.... तथा “विभूषा'' सूत्रके अवयवमें भी हमारे प्रश्न के उत्तर आप नहिं दे शकोगे... क्योंकिकाम-विकारके अंग होनेसे मंडन (अलंकार) की तरह स्नान भी साधुओंको योग्य (उचित) नहिं है... क्योंकि- स्नान, काम-विकारोंका अंग (कारण) है यह बात सभी लोग जानतें हैं... कहा भी है कि- स्नान, मद एवं दर्पका कारण है, तथा स्नान काम-विकारका प्रथम अंग है, इसीलिये इंद्रियोका दमन करनेवाले साधुलोग काम-विकारोंसे बचनेके लिये कभी भी स्नान नहिं करतें... और शौच के लिये भी अप्कायका उपभोग करना श्रेष्ठ (उचित) नहिं है, क्योंकि- जलसे तो केवल (मात्र) बहारका हि मल दूर होता है... आत्माके अंदर रहे हुए कर्म-मलको दूर करनेके लिये जल समर्थ नहिं है... इसीलिये शरीर, वचन एवं मन के अशुभ कार्योका त्याग करना,
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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