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________________ 192 #1-1-3-12 (30)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन VI सूत्रसार : यह हम पहले देख चुके हैं कि ज्ञान और आचार का घनिष्ट संबन्ध रहा हुआ है / ज्ञान के अभाव में आचार में तेजस्विता नहीं आ पाती / यह अंधे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता है / यही बात सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताई है कि जिन व्यक्तियों को पानी की सजीवता का परिज्ञान नहीं है, वे अनेक तरह के शस्त्रों से अप्काय-पानी के जीवों का नाश करते हैं / शस्त्र दो प्रकार के माने गए हैं- १-स्वकाय और २-परकाय / मधुर पानी के लिए क्षार जल तथा शीतल के लिए उष्णपानी स्वकाय शस्त्र है और राख-भस्म, मिट्टी, आग आदि परकाय शस्त्र कहलाते हैं / इन दो प्रकार के शस्त्रों से लोग अप्कायिक जीवों की हिंसा करके कर्मों का बन्ध करते हैं / आश्चर्य तो उन लोगों पर होता है, कि- जो अपने आपको साधु कहते हैं और समस्त प्राणियों की रक्षा करने का दावा करते हुए भी उक्त उभय शंखों से अपकाय का विध्वंस करते हैं और उसके साथ अन्य स्थावर एवं स जीवों की हिंसा करते हैं / अतः उनका मार्ग निर्दोष नहीं कहा जा सकता / उनके मार्ग की सदोषता बताकर, अब सूत्रकार उन के आगमों की अप्रमाणिकता का उल्लेख करने के लिए आगे का सूत्र कहेंगे.... I सूत्र // 12 // || 30 || एत्थ वि तेसिं नो निकरणाए || 30 / / II संस्कृत-छाया : एतस्मिन् अपि तेषां न निश्चयाय // 30 // III शब्दार्थ : एत्थऽवि-यहां पर भी / तेसिं-उनके द्वारा मान्य सिद्वान्त-शास्त्र / नो निकरणाएनिर्णय करने में समर्थ नहीं है। IV सूत्रार्थ : कुमतवालोंके शास्त्रों में भी उनको कोइ भी सही (सत्य) निश्चय नहिं हो शकता है / / 30 // V टीका-अनुवाद : प्रस्तुत ऐसे कुमतवालोंको अपने शास्त्रके अनुसार भी अपने माने हुए सूत्र क्रमांक 29
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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