________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-1-3 -7 (25) 183 दोष की यहां संभावना थी... और श्रुतज्ञान हि प्रमाण (मान्य) है ऐसा विधान करनेके लिये हि परमात्माने स्वभावसे हि अचित्त ऐसे जल तथा तिलका उपभोग करनेका आदेश नहिं दीया... सामान्य श्रुतज्ञानीओंका ऐसा व्यवहार है कि- बाह्य इंधन-अग्निके संपर्कसे उबाला हुआ जल हि अचित्त होता है, अग्निके संपर्क बिना नहिं... इसीलिये बाह्य अग्नि आदि शसके संपर्कसे हि अचित्त बना हुआ एवं वर्णांतरको पाया हुआ हि जल आदि साधुओंको उपभोगके लिये कल्प्य है... अब अप्कायका शस्त्र कौन है वह कहतें हैं... जीससे जीवोंकी हिंसा हो, उसे शस्त्र कहतें हैं, और वह उत्सिंचन, गालन, और वस्त्र तथा पात्र आदि उपकरणोंका धोना इत्यादि स्वकाय, परकाय एवं उभयकायादि शस्त्र हैं कि- जीससे पूर्व अवस्थासे विलक्षण = भिन्न प्रकारके वर्णादिकी उत्पत्ति हो... वह इस प्रकार- अग्निके पुद्गलोंके संपर्कसे श्वेत जल कुछ पिंगल (पीला-लाल) वर्णका बनता है... स्पर्शसे शीत जल अग्निके संपर्कसे उष्ण बनता है... और गंधसे वह जल धूमगंधि होता है एवं रससे कुछ विरस बनता है... इस प्रकार तीन बार उबाला (उफान आया) हुआ जल अचित्त होता है... ऐसा अचित्त जल = अप्काय हि साधुओंको कल्पता है, सचित्त या मिश्र जल नहिं कल्पता... तथा कचरा (धूली) बकरेकी लींडीयां, गोमूत्र एवं क्षार आदि इंधनके संपर्कसे जल अचित्त होता है... यहां चतुर्भगी होती है... 1. थोडे जल में थोडा कचरा आदि इंधन बहुत " " थोडा " " बहत " , 3. बहुत जल में इसी प्रकार थोडे, मध्यम एवं बहुत के भेदसे अनेक भेद होते हैं... इस प्रकार स्वकाय शस्त्र, परकाय शस्त्र एवं उभयकाय शस्त्र ऐसे तीन प्रकारके शस्त्र होते हैं... इनमें से कोई भी प्रकारके शससे अचित्त बना हुआ जल हि साधु-लोग ग्रहण करतें है, अचित्त न हुआ हो ऐसे जलका उपयोग साधु नहि करतें... इस प्रकार हे शिष्य / देखो... अप्काय के विषयमें विचार करके, विविध प्रकारके शस्त्रोंमें से, यह इनका शस्त्र है, ऐसा यहां प्रतिपादन कीया है... अब इसी बातको सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे...