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________________ 182 // 1-1 -3 -7(25), श्री राजेद्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III शब्दार्थ : खलु-अवधारण अर्थ में / इह-इस-तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित आगम में / अणगाराणं-अनगारों को / उदय जीवा-अप्पकाय स्वयं सजीव है, यह / वियाहिया-कहा गया है / च-चकार से अप्कायिक जीवों के अतिरिक्त उसके आश्रित रहे हुए द्वीन्द्रिय आदि अन्य जीवों का ग्रहण किया गया है / च-अवधारण अर्थ में है / सत्थं-शस्त्र / एत्थं-इस अपकाय में / अणुवीइ-विचार कर। पास-हे शिष्य ! तू देख / IV सूत्रार्थ : यहां जिन-प्रवचनमें हे शिष्य ! निश्चित हि प्रकारसे साधुओंको अप्काय-जीवोंकी पहचान करवाई है... और यहां अप्कायमें जो जो शत्र होते हैं उन्हें विचार करके देखीयेगा... // 25 // V टीका-अनुवाद : यहां जिन-प्रवचन स्वरूप द्वादशांगीमें साधुओंको जलके जीव अप्काय और जलमें रहनेवाले पूतरक, छेदनक, लोद्दणक, भमरक, मत्स्य आदि जीव है, और उनके छेदन-भेदनका फल कर्मबंध भी कहा गया है... अन्य मतमें उदक स्वरूप अप्काय जीवोंका स्वरूप नहि बताया है... प्रश्न- यदि अप्काय स्वयं हि जीव है तब तो उनके उपभोगमें अवश्य हि प्राणातिपात नामका दोष जिन-मतके साधुओंको भी लगता हि है... उत्तर- ना, ऐसा नहिं है, क्योंकि- अपकायके तीन (3) प्रकार है (1) सचित्त, (2) मिश्र, (3) अचित्त... उनमें जो अचित्त अप्काय है, उनका हि उपभोग, साधुओंको बतलाया है, शेष दो प्रकार सचित्त और मिश्र अप्काय का उपभोग साधु-लोग नहिं करतें... प्रश्न- अपकाय (जल) अचित्त कैसे होता है ? क्या स्वभावसे हि? क्या शस्त्रके उपघात से? उत्तर- दोनों प्रकारसे अप्काय अचित्त होता है... उनमें जो अप्काय स्वभावसे हि अचित्त होता है, उन्हें केवल ज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी और विशिष्ट श्रुतज्ञानी जानते हुए भी उनका उपभोग नहिं करतें क्योंकि- यहां अनवस्था याने गलत परंपरा स्वरूप दोषका संभव हो शकता है... और ऐसा सुनने में भी आता है कि- एक बार श्री वर्धमान स्वामीजीने भी तृषासे पीडित अपने शिष्योंको निर्मल जलसे भरे हुए तरंगित सरोवरके शेवाल एवं अस जीवोंसे रहित ऐसे अचित्त जलको पीनेका आदेश नहिं दीया... तथा अचित्त तिलको खानेका भी अनुज्ञा नहिं दी... क्योंकि- गलत परंपरा स्वरूप अनवस्था
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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