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________________ 184 // 1-1 - 3 -8 (26)' श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- अप्काय-जल सजीव है, सचेतन है। और इस बात को केवल जैन दर्शन ही मानता है / अन्य दर्शनों ने जल में दृश्यमान एवं अदृश्यमान अन्य जीवों के अस्तित्व को स्वीकारा है / परन्तु जल स्वयं सजीव है, इस बात को जैनों के अतिरिक्त किसी भी विचारक या दार्शनिक ने नहीं माना / वस्तुतः पृथ्वी, जल आदि स्थावर जीवों की सजीवता को प्रमाणित करके जैन दर्शन ने अध्यात्म विचारणा में एक नया अध्याय जोड़ दिया और इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनागम सर्वज्ञ प्रणीत हैं / प्रश्न- यदि अप्काय-जल सजीव है, असंख्यात जीवों का पिण्ड है, तो फिर उसका उपयोग करने पर उसकी हिंसा होगी ही / और जल का उपयोग दुनिया के सभी मनुष्य करते हैं, साधु भी उसका उपयोग करते ही हैं / ऐसी स्थिति में वे अप्कायिक जीवों की, हिंसा से कैसे बच सकते हैं ? उत्तर- जैनागमों में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है / पानी तीन प्रकार का बताया गया है-१-सचित्त-जीव युक्त, २-अचित्त-निर्जीव और 3-मिश्र, सजीव और निर्जीव का मिश्रण / इस में सचित्त और मिश्र यह दो तरह का पानी साधु के लिए अव्याह्य है / किन्तु अचित्त जल, जिसे प्रासुक पानी भी कहते हैं, साधु के लिए व्याह्य बताया गया है / क्योंकि उसमें सजीवता नहीं होने से वह निर्दोष है / आवश्यकता के अनुसार उसका उपयोग करने में साधु को हिंसा नहीं होती / क्योंकि- साधु की प्रत्येक क्रिया यतना एवं विवेक पूर्वक होती है। साधुजन अनावश्यक कोई क्रिया नहीं करतें / इस लिए साधुओंको पाप कर्म का बन्ध नहीं होता है / यहां इस बात को भी समझ लेना चाहिए कि- बाह्य शस्त्र के प्रयोग से परिणामान्तर को प्राप्त जल अचित्त-निर्जीव होता है / यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 8 // // 26 // पुढो सत्थं पवेइस // 26 // II संस्कृत-छाया : पृथक शस्त्रं प्रवेदितम् // 26 // III शब्दार्थ : पुढो-पृथक्-पृथक् / सत्थं-शस्त्र / पवेइयं-कहे हैं।
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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