________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-१-3-६ (२४)卐 179 जीवन के वास्तें / परिवंदण-प्रशंसा / माणण-सम्मान और / पूयणाय-पूजा के वास्ते / जाइ'मरण-मोयणाए-जन्म-मरण से छूटने के लिये और दुक्ख पडिघाय हेउं शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का नाश करने के लिये / से-वह / सयमेव स्वयं भी / उदय सत्थं-अप्कायिक शस्त्र का / समारम्भति-समारंभ करता है / वा-अथवा / अण्णेहिं-अन्य व्यक्ति से / उदय सत्थंअप्कायिक शस्त्र का / समारम्भवेति-समारम्भ कराता है / तथा-उदय सत्थं-अप्कायिक शस्त्र का / समारंभते-समारम्भ करते हुए / अण्णे-अन्य व्यक्तियों का / समणुजाणति-अनुमोदनसमर्थन करता है / तं-वह अप्पकायिक समारम्भ। से-उस को / अहियाए-अहित कर होता है। तं-वह / से-उसको / अबोहिए-अबोध का आरण होता है / से-वह / तं-इस विषय में / संबुज्झमाणे-संबुद्ध हुआ प्राणी / आयाणीयं-उपादेय ज्ञान-दर्शनादि से / समुळायसम्यक्तया उठ कर या सावधान होकर | सोच्चा-सुनकर। भगवतो-भगवान से या / अणगाराणां-अनगारों के / अन्तिए-समीप से / इहं-इस संसार में / एगेसिं-किसी किसी व्यक्ति को / णायं-ज्ञात / भवति-होता है / एष खलु-यह निश्चय ही / एस-यह अप्कायिक समारम्भ / गंथे-अष्ट विध कर्मो की गांठ है / एस खलु-यह निश्चय ही। मोहे-मोह का कारण है / एस खलु-यह निश्चय ही / मारे-मृत्यु का कारण है / एस खलु-यह निश्चय ही / णरएनरक का कारण होने से करक रूप है / इत्थं-इस प्रकार विषयों में। गड्ढिए लोए-मूर्छित लोक / जमिणं-इस अप्काय का / विरुवरुवेहि-अनेक तरह के। सत्थेहि-शस्त्रों से / उदयकम्म समारम्भेण-अप्कायिक कर्म के समारंभ से / उदयं सत्थं-अप्काय शस्त्र का / समारम्भमाणे-समारंभ-प्रयोग करते हुए / अण्णे-अन्य / अणेग रूवे-अनेक तरह के / पाणे-प्राणियों की / विहिंसई-विविध प्रकार से हिंसा करता है / से-वह। बेमि-मैं कहता हूं। पाणा-प्राणी / उदय निस्सिया-अप्काय के आश्रित / अणेगे-अनेक / जीवा-जीव / संतिविद्यमान है / IV सूत्रार्थ : हे शिष्य ! लज्जित हो रहे शाक्य आदि साधुओंको देखो ! कि- जो "हम अणगार हैं" ऐसा कहते हुए वे विभिन्न प्रकारके शस्त्रोंसे उदक (जल) की विराधना द्वारा जलके शस्त्रका प्रयोग करते हुए अनेक प्रकारके जीवोंकी हिंसा करतें हैं... यहां परमात्मा श्री महावीर प्रभुने. परिज्ञा कही है / इस क्षणिक जीवितके वंदन-मानन एवं पूजनके लिये, जन्म तथा मरणसे छुटनेके लिये और दुःखोंके विनाशके लिये वह शाक्यादि साधु, स्वयं हि जलके शस्त्रका समारंभ करतें है, अन्योंके द्वारा जलके शस्रोंका समारंभ करवातें हैं तथा स्वयं हि जलके शस्त्रोंका समारंभ करने वाले अन्योंका अनुमोदन करतें हैं... किंतु यह समारंभ उनके अहितके लिये एवं अबोधिके लिये होता है.. इस बातको जानकर संयमको स्वीकार करके परमात्मासे या साधुओंसे सुनकर यह जानतें हैं कि- यह अप्काय-समारंभ निश्चित हि ग्रंथ है, मोह है, मार है एवं