________________ 180 卐१ - 1 -3 -6 (24) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नरक है... अपकायके समारंभमें अतिशय आसक्त मनुष्य विभिन्न प्रकारके शस्त्रोंसे उदक- . कर्मसमारंभके द्वारा उदकशस्त्रका समारंभ करते हुओ अन्य अनेक प्रकारके जीवोंकी हिंसा करतें हैं... वह मैं कहता हूं कि- जलका आश्रय लेकर और भी अनेक जीव जलमें रहते हैं // 24 // v टीका-अनुवाद : हे शिष्य ! अपने प्रव्रज्याके देखावको करते हुए अथवा तो सावध अनुष्ठानसे लज्जित होनेवाले उन शाक्य उलूक-कणभूक्-कपिल आदि मतवाले साधुओंको देखो ! यहां वाक्यमें अविवक्षित कर्म है... जैसे कि- “देखो, मृग दौडता है" यहां द्वितीया के अर्थमें प्रथमा विभक्ति हुइ है... यहां भावार्थ यह है कि- सावध (पाप) अनुष्ठानवाले प्रव्रज्या लीये हुए विभिन्न शाक्य आदि मतवाले साधुओंको हे शिष्य ! तुम देखो ! वे कहते हैं कि- “हम अनगार (साधु) हैं" फिर भी वे शाक्यादि साधुओं विविध प्रकारके वृक्षसिंचन, अग्नि इत्यादि शस्त्रोंसे स्वकाय परकाय एवं उभयकायादि विभिन्न शस्त्रोंसे उदक = जलके कर्मका समारंभ करतें हैं, उदक-कर्मक समारंभके द्वारा अनेक प्रकारके वनस्पति आदि तथा बेइंद्रिय आदि जीवोंकी विविध प्रकारसे हिंसा करतें हैं (जलमें अन्य शस्त्र अथवा जल हि जलका शस्त्र हो ऐसा समारंभ करतें हैं) यहां निश्चित प्रकारसे परमात्माने परिज्ञा कही है, जैसे कि- इसी जीवितव्यके वंदन, सन्मान एवं पूजा के लिये. जन्म तथा मरणसे छटनेके लिये और दःखोंके विनाशके लिये वे स्वयं हि जलमें शस्त्रका प्रयोग करतें हैं, अन्योंके द्वारा जलमें शस्त्रका प्रयोग करवातें हैं, और जो लोग स्वयं हि जलमें शस्त्रका प्रयोग करतें हैं, उनकी अनुमोदना करतें हैं... तो अब यह जलका समारंभ उनके अहितके लिये और अबोधिके लिये होता है... ऐसा जानकर वह संयमका स्वीकार करके परमात्मासे या तो साधुओंसे सुनकर यह जानता है कि- यह अप्कायका समारंभ, ग्रंथ है याने आठों कर्मोके बंधका कारण है, तथा यह अप्कायका समारंभ, मोह है, मार है, तथा नरक है... अप्कायके समारंभमें अतिशय आसक्त मनुष्य जो यह विभिन्न प्रकारके शस्त्रोंसे उदककर्मक समारंभके द्वारा उदकमें शस्त्रका प्रयोग करता हुआ अन्य अनेक प्रकारके जीवोंकी विविध प्रकारसे हिंसा करता है अप्काय जीवोंकी अनेक प्रकारकी बातें प्रभुजीसे जानकर मैं (सुधर्मास्वामी) तुम्हे कहता हूं कि- जलका आश्रय लेकर पोरा, मच्छलीयां आदि अनेक जीव होतें हैं, अत: जलका आरंभ करनेवाला मनुष्य उन जीवोंकी भी हिंसा करता है, अथवा तो यहां अनेक जीव ऐसा कहनेसे यह अर्थ निकलेगा कि- जलका आश्रय लेकर अनेक प्रकारके जलचर जीव होते हैं और उनके एक एक भेदमें भी असंख्य असंख्य जीव होते हैं, अतः अप्कायका आरंभ करनेवाला पुरुष जलमें रहे हुए उन सभी जीवोंकी हिंसा करनेवाला होता है...