________________ 172 卐१-१-3-४ (२२)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन शारीरिक एवं भौतिक बल नहीं, किन्तु आध्यात्मिक शक्ति से है / वीर या बलवान वह है, जो क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों को परास्त करने की शक्ति रखता है, मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ पदार्थों को देख कर मन में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष को उभरने नहीं देता। क्योंकिदुनिया में राग-द्वेष एवं कषाय सब से शक्तिशाली माने गए हैं / बड़े-बड़े शक्तिशाली योद्धा एवं चक्रवर्ती समाट् भी कसायों के दास बन जाते हैं, कषायों एवं राग-द्वेष के प्रवाह में प्रवहमान होने लगते हैं / अतः सच्चा विजेता और वास्तविक शक्तिशाली व्यक्ति वही माना जाता है, कि- जो इन चारों कसायों को पछाड़ देता है / प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है किगजसुकुमार जैसे वीर पुरुषों ने राग-द्वेष, कषाय एवं परीषहों पर विजय प्राप्त करके सिद्धत्व को प्राप्त किया है / श्रेष्ठ एवं महान् पुरुषों द्वारा आचरित होने से यह संयममार्ग प्रशस्त है, अत: मुमुक्षु को उत्साह के साथ साधना पथ पर बढ़ते रहना चाहिए / पिछले सूत्रों एवं प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने पृथ्वीकायिक जीवों के संरक्षक अनगार .. की योग्यता एवं उस के स्वरूप का वर्णन किया है / अब अगले सूत्र में सूत्रकार अपकायिक जीवों के संबन्ध में वर्णन करेंगे / किन्तु अप्काय का विस्तार से विवेचन करने के पूर्व सूत्रकार ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि साधक को इस बात पर विश्वास एवं श्रद्धा रखनी चाहिए कि- अप्काय भी जीव हैं, उस का आरंभ-समारंभ करने से पाप कर्म का बन्ध होता है / यदि कभी अपनी बुद्धि काम नहीं करती है, तब भी तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित एवं महापुरूषों द्वारा आचरित मार्ग पर श्रद्धा रखकर वीतराग की आज्ञा के अनुसार आचरण करना चाहिए / इसी बात को और स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 22 // लोगं च आणाए अभिसमेच्चा, अकुओभयं // 22 // II संस्कृत-छाया : लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य (अभिगम्य अवगम्य) अकुतोभयम् // 22 // III शब्दार्थ : लोगं-अप्काय रूप लोक को / च-और अन्य पदार्थों को / आणाए-तीर्थकर भगवान की आज्ञा से / अमिसमेच्चा-जानकर / अकुओ भयं-संयम का परिपालन करे / IV सूत्रार्थ : अप्काय लोकको आज्ञासे जाने कि- यह लोक अकुतोभय है... // 22 //