________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 3 - 3 (21) 171 I सूत्र || 3 || || 21 // पणया वीरा महावीहिं // 21 // II संस्कृत-छाया : प्रणतः वीराः महावीथिम् // 21 / / III शब्दार्थ : वीरा-वीर पुरुष-परिषह-उपसर्ग और कषायादि पर विजय प्राप्त करने वाले / महावीहिं-प्रधान मोक्ष मार्ग में / पणया-पुरुषार्थ कर चुके हैं / IV सूत्रार्थ : मोक्षमार्गक अनुष्ठानको वीर्यवंत वीर पुरुष हि करतें हैं (आचरतें हैं) // 21 // V टीका-अनुवाद : जिनेश्वरोंने बताये हुए सम्यग् दर्शन ज्ञान एवं चारित्र स्वरूप मोक्षमार्गमें वीर्यवंत वीर पुरुष हि परीषह और उपसर्गकी सेनाको जीत कर विचरतें हैं... तीर्थंकरोंने मोक्षमार्ग बताया है, ऐसा कहनेसे श्रद्धालु शिष्य (जीव) विश्वासके साथ सुगमतासे इस संयमके अनुष्ठान में प्रवृत्त होता है... अथवा- यद्यपि आपकी मति संस्कारके अभावमें यदि अप्काय-जीवोंको पहचान नहिं शकती है, तो भी यह परमात्माकी आज्ञा है, ऐसा मानकर भी अप्काय-जीवोंकी श्रद्धा करें... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : हम यह प्रथम ही बता चुके हैं कि जीवन में श्रद्धा की ज्योति का प्रदीप्त रहना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है / हम सदा देखते हैं कि श्रद्धा के बिना लौकिक या लोकोत्तर कोई भी कार्य सफल नहीं होता / साधना को सफल बनाने के लिए दृढ एवं शुद्ध श्रद्धा होनी चाहिए / इसी बात को सुत्रकार ने पिछले सत्र में बताया है कि साधक को अपने हृदय में संशय को प्रविष्ट नहीं होने देना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र में श्रद्धा को दृढ़ बनाए रखने के लिए सूत्रकार ने यह स्पष्ट किया है कि यह साधना का मार्ग आज से नहीं, अपितु अनादि काल से चालू है, अनेक वीर पुरूषों ने इस मार्ग पर गतिशील होकर निर्वाण पद को प्राप्त किया 'वीर' शब्द का सीधा सा अर्थ शक्तिशाली है / परन्तु प्रस्तुत सूत्र में इसका संबन्ध