________________ 卐१-१-3-२ (20) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन / इसी तरह चारित्र-संयम, तप एवं वीर्याचार में श्रद्धा-विश्वास होने पर ही वह उन को स्वीकार कर सकता है, अन्यथा नहीं / यही कारण है कि- श्रद्धा को विशेष महत्त्व दिया गया है / आगम में भी मनुष्य जन्म, शास्त्र-श्रवण, संयम मार्ग में प्रवृत्त होने आदि को दुर्लभ बताया गया है, परन्तु श्रद्धा के लिए कहा गया है कि- श्रद्धा दुर्लभ ही नहीं, परम दुर्लभ है... "सद्धा परम दुल्लहा" इस लिए सूत्रकार ने मुमुक्षु को विशेष रूप से सावधान एवं जागृत करते हुए कहा है कि- हे साधक ! तू जिस श्रद्धा-विश्वास के साथ साधना पथ पर गतिशील हुआ है, उस श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता को मत आने देना / अपने हृदय में किसी भी तरह शंकाकुशंका को प्रविष्ट न होने देना / अपनी आंतरिक भावना के विश्वास को दूषित मत करना। यह अनुभूत सत्य है कि संसारी जीवों की भावना सदा एक सी नहीं रहती / आत्मा / के परिणामों की धारा में परिवर्तन होता रहता है / विचारों में कभी मन्दता आती है, तो कभी तीव्रता / साधक के मन में भी दीक्षा के समय जो उत्साह एवं उल्लास होता है, उस में मन्दता एवं वेग दोनों के आने को अवकाश रहता है उस की श्रद्धा में दृढ़ता एवं निर्बलता दोनों के आने के निमित्त एवं साधन मिलते है / इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि- श्रद्धा को कमजोर बनाने वाले साधनों से बचकर-दृढ़ विश्वास के साथ संयम मार्ग पर गति करें " श्रद्धा को क्षीण बनाने या विपरीत दिशा में मोड़ देने वाला संशय है / जब मन में, विचारों मे सन्देह होने लगता है, तो साधक का विश्वास डगमगा जाता है उसकी साधना लड़खड़ाने लगती है / अतः साधक को इस बात के लिए सदा सावधान रहना चाहिए कि उसके मन में संदेह प्रविष्ट न हो / संशय को पनपने देना, यह साधना के मार्ग से गिरना है / संशय भी दो प्रकार का होता है-१-सर्व संशय और २-देश संशय / पूरे सिद्धान्त पर संदेह करे या मने में यह सोचे कि- यह सिद्धांत वीतराग द्वारा प्रणीत है और वीतराग की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने से आत्मा समस्त कर्मों से मुक्त हो जायगी, यह किसने देखा है ? अतः इस पर कैसे विश्वास किया जाए ? यह सर्व शंका है / और सिद्धान्त के किसी एक तत्त्व या पहलू पर सन्देह करना देश शंका है / जैसे-मुक्ति है या नहीं ? यह देश शंका का उदाहरण है / दोनों तरह की शंकाएं आत्मा की श्रद्धा को शिथिल कर देने वाली हैं, अतः साधक को अपने हृदय में शंका को उद्भूत नहीं होने देना चाहिए / साधनापथ नया नहीं है / अनन्त काल से अनेक साधक, इस पथ पर गतिशील होकर अपने साध्य को सिद्ध कर चूके हैं / यह बात, अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे...