________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१ - 1 -3 - 2 (20)' 169 तो भी ऐसे साधु थोडे हि होतें हैं, और बहोत सारे साधु तो पतन परिणामवाले हि होतें हैं, अतः कहतें हैं कि- शंका - कुशंकाओंको छोडकर साधु, उसी संयम परिणाम स्वरूप श्रद्धाको बार बार सुरक्षित रखें... शंका के दो प्रकार है... 1. सर्व शंका 2. देश शंका... 1. सर्व शंका - तीर्थंकरोने बताया हुआ मोक्षमार्ग है कि नहि... ? यह सर्वशंका है... 2. देश शंका- आंशिक शंका = आगम सूत्रमें कहे गये अप्काय-जीव है या नहिं ? क्योंकि- उनमें स्पष्ट चेतना स्वरूप लक्षण दिखता नहिं है... इत्यादि शंकाको छोडकर संपूर्ण प्रकारसे साधुओके गुणों (व्रतों) को सुरक्षित रखें... विस्रोतसिका याने शंका के दो प्रकार है 1. द्रव्य विस्रोतसिका 2. भाव विसोतसिका. 1. द्रव्य विस्रोतसिका = नदी आदिमें प्रवाहके सामने जाना... 2. भाव विस्रोतसिका = मोक्षमार्ग स्वरूप सम्यग् दर्शन आदिसे प्रतिकूल चलना... ऐसी स्वरूपवाली विस्रोतसिका याने शंकाको छोड़कर साधुजीवनके मूल एवं उत्तरगुणव्रतोंका पालन करें... अथवा तो- पूर्व संयोग मात-पिता आदि एवं पश्चात् संयोग श्वसुर साला आदिके मोह. संयोगको छोडकर, संयम श्रेणी स्वरूप श्रद्धा का पालन करें... यह अपूर्व अनुष्ठान फक्त आप हि करतें हैं ऐसा नहिं है, किंतु पूर्वकालमें अनेक महासत्त्वशाली जीवोंने यह अपूर्व मोक्षमार्गक अनुष्ठानका पालन कीया है... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : आगम में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार वीर्याचार का वर्णन मिलता है / प्रस्तुत सूत्र में दर्शनाचार का विवेचन किया गया है / वस्तु तत्त्व को जानने की अभिरूचि या तत्त्वों पर श्रद्धा करने का नाम सम्यग् दर्शन है / दर्शनाचार को पंचाचार में प्रधान स्थान दिया गया है / इसका कारण यह है कि तत्त्वों को जानने की अभिरूचि होने पर ही साधक ज्ञान की साधना में संलग्न हो सकता है / इसलिए ज्ञान से पहले सम्यग दर्शन-श्रद्धा का होना जरूरी है / इसी तरह चारित्र-संयम, तप एवं वीर्याचार में भी श्रद्धा का होना जरूरी है