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________________ 166 // 1-1 - 3 - 1 (19); श्राराजन्प्रचा श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सब से पहले घर का त्याग करना अनिवार्य है / घर-गृहस्थ में रहते हुए अज्ञानी लोग, सम्यक्तया साधुत्व की साधना-आराधना एवं परिपालना नहीं कर सकता / क्योंकि पारिवारिक; सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व से आबद्ध होने के कारण उसे न चाहते हुए भी आरंभ-समारंभ के कार्य में प्रवृत्त होना पड़ता है / आरंभ-समारंभ में प्रवृत्ति किए बिना गृहस्थ कार्य चल ही नहीं सकता और साधु जीवन में आरंभ-समारंभ की क्रिया को ज़रा भी अवकाश नहीं है / अतः साधुत्व का परिपालन करने के लिए गृहस्थ जीवन का परित्याग करना अनिवार्य है / इस लिए सूत्रकार ने साधु के लिए प्रयुक्त होने वाले अन्य शब्दों का प्रयोग न करके अनगार शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि- साधक, साधु जीवन में प्रविष्ट होने के पूर्व घर एवं गृहस्थ संबन्धी सावध कार्य पूर्णतया त्याग करे / अनगार शब्द का शाब्दिक अर्थ है-घर रहित / परन्तु घर का परित्याग करने मात्र से ही साधुत्व नहीं आ जाता है / उसके लिए जीवन को निर्दोष एवं परिष्कृत करने की आवश्यकता है / इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने अनगार शब्द के साथ तीन विशेषणों का प्रयोग किया है / पहला विशेषण है-उज्जुकडे- (ऋजुकृतः) इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार आचार्य शीलांक ने लिखा है "ऋजुः- अकुटिल: संयमो दुष्प्रणिहितमनोवाक्काय निरोधः सर्वसत्त्वसंरक्षण प्रवृत्तत्वाद् दयैकरूपः" अर्थात् सरल, कुटिलता से रहित, संयम मार्ग में प्रवृत्त, दुष्कार्य में प्रवृत्तमन, वचन और काय का निरोधक, समस्त प्राण, भूत, जीव, सत्त्व के संरक्षण में प्रवृत्तमान साधक को ऋजु कहते हैं / तात्पर्य यह निकला कि संयम मार्ग में प्रवृत्तमान साधक को अनगार कहा है / क्योंकि कुछ व्यक्ति घर का परित्याग करके अपने आप को अनगार या साधु कहने लगते हैं / परंतु घर का परित्याग करने के साथ वे कुटिलता का एवं सावध कार्यों का परित्याग नहीं करते, मन, वचन और काय का दुष्कार्यों से निरोध नहीं करते / इसलिए वे वास्तव में अनगार नहीं है / इसी बात को सूत्रकार ने 'ऋजुकृतः' विशेषण से स्पष्ट किया है / अनगार वही है, जो अपनी इन्द्रियों, मन एवं योगों को नियन्त्रण में रखता है, सब प्राणियों की दया एवं रक्षा करता है / ___ कुछ व्यक्ति अपने विषय सुख को साधने के लिए, एवं यश-ख्याति पाने के लिए या भौतिक सुख एवं स्वर्ग आदि पाने की अभिलाषा से इन्द्रिय एवं मन पर भी नियन्त्रणा कर लेते हैं। फिर भी वे वास्तव में अनगार नहीं कहे जा सकते, जब तक उनकी प्रवृत्ति मोक्ष मार्ग में नहीं है / इस बात को सूत्रकार ने 'नियाय पडिवण्णे' विशेषण से स्पष्ट किया / इसकी परिभाषा करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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