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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1 - 3 - 1 (19) 165 व्याख्यातः // 19 // V टीका-अनुवाद : हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हे कहता हूं कि- ऋजुकृत्, मोक्षमार्गको प्राप्त, और माया नहिं करनेवाले अणगार = साधु कहे गये है... - दुसरे उद्देशकके अंतिम सूत्रमें कहा था कि- पृथ्वीकायके समारंभसे जो विरमण करता है वह मुनी है, किंतु इतने मात्रसे मुनी नहिं होता... तब मुनी जिस प्रकारसे होता है वह कहते हैं... हे जंबू ! पृथ्वीकायके समारंभसे विरमण करनेके बाद वह अनगार बनता है... अर्थात् घरका त्याग करता है... उसके बाद ऋजु याने मोक्षके कारण ऐसे सत्तरह (17) प्रकारके संयमको करता है... अर्थात् अशुभ मन-वचन-कायका निरोध करके सर्व जीवोंके संरक्षण स्वरूप संयमको धारण करता है... उसके बाद वह मुनी सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप मोक्ष-मार्गको प्राप्त करता है... उसके बाद अपने शक्ति सामर्थ्य-वीर्यको छुपाये बिना संयमानुष्ठानमें पराक्रम करता है ऐसा मुनी कहा गया है... ऐसा कहनेसे अशेष कषायोंको दूर करनेका सूचन कर दीया है... कहा भी है कि- जो ऋजु = सरल है उसकी हि शुद्धि होती है, और जो शुद्ध है उसमें धर्म रहता है... - अब सकल मायाके जालको दूर करके वह मुनी क्या करता है ? यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : - साधु; मुनि या अनगार जीवन क्या है ? यह प्रश्न आज का नहीं, शताब्दियों एवं सहस्राब्दियों पहले का है / भगवान महावीर के युग में, महावीर के ही युग में नहीं, उससे भी पहले यह प्रश्न विचारकों के सामने चक्कर काटता रहा है, क्योंकि अनेकों व्यक्ति अपने आपको मुनि, त्यागी कहते रहे हैं / अतः त्यागी किसे समझा जाए, उसकी पहिचान क्या है ? उसका जीवन कैसा होना चाहिए ? आदि प्रश्नों का उठना सहज स्वभाविक है / प्रस्तुत सूत्र में इन्हीं प्रश्नों का गहन भाषा में समाधान किया गया है / अनगार की योग्यता को बताते हुए सूत्रकार ने तीन विशेषणों का प्रयोग किया है-१-संयम का परिपालक हो, २-मोक्ष मार्ग पर गतिशील हो और 3-माया रहित अर्थात् निश्ठल एवं निष्कपट हृदय वाला हो / इन विशेषणों से युक्त साधक ही अनगार कहा जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में एक बात ध्यान देने योग्य है / वह यह है कि यहां साधु के लिए प्रयुक्त होने वाले मुनि, यति, श्रमण, निन्थ आदि शब्द का प्रयोग न करके अनगार शब्द का प्रयोग किया है / इसका कारण यह है कि साधना के पथ पर गतिशील होने वाले साधक के लिए
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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