________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 3 - 2 (20) 167 ."नियाग-सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रात्मक- मोक्षमार्ग प्रतिपन्नो नियागप्रतिपन्नः / " अर्थात् सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र से युक्त मोक्ष मार्ग पर गतिशील साधक ही नियागप्रतिपन्न कहा गया है / इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि जिस साधक की साधना इंद्रिय एवं योगों पर नियन्त्रण एवं तपस्या आदि अनुष्ठान, बिना किसी भौतिक आकांक्षा अभिलाषा के होता है अर्थात् यों कहिए कि जो केवल कर्मों की निर्जरा करके शुद्ध आत्म स्वरूप प्रगट करने या निर्वाण-मोक्ष पद पाने हेतु, साधना करता है, वही साधक संयम सम्पन्न है, अनगार है। दशवकालिक सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि साधक इस लोक में भौतिक सुख पाने के लिए तपस्या न करे, परलोक में स्वर्ग एवं ऐश्वर्य पाने की आकांक्षा से तप न करे, यशःकीर्ति पाने हेतु तपस्या न करे / किन्तु एकान्त निर्जरा के लिए तपश्चर्या करे / जैसे तप के लिए कहा गया है, उसी तरह समस्त धार्मिक क्रियाओं के लिए कहा है / विना किसी भौतिक इच्छा आकांक्षा या निदान के साधना या संयम पर गतिशील होना यही मोक्षमार्ग है और इस मार्ग पर आरूढ़ साधक ही सच्चा एवं वास्तव में अनगार है / / ___ अनगार का तीसरा विशेषण है 'अमाय' अर्थात् छल-कपट नहीं करने वाला / माया को भी जीवन का बहुत बड़ा दोष माना गया है / आगम में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि "माई मिच्छादिट्ठी, अमाई सम्मदिट्ठी' अर्थात्-माया एवं छल-कपट युक्त व्यक्ति मिथ्यादृष्टि कहा गया है / संसार के कार्यों में ही नहीं, धर्म प्रवृत्ति में भी छल-कपट करना दोष माना गया है / 19 वें तीर्थंकर मल्लिनाथ ने अपने साधु के पूर्वभव में माया पूर्वक तप किया था / संक्षेप में कथा इस प्रकार है- उनके छ: साथी साधु थे / सभी एक साथ तप शुरू करते, किन्तु मल्लिनाथ का जीव साधु, यह सोचता कि मैं * इन से अधिक तप कसं, पर कसं कैसे ? यदि इन्हें कह दूंगा कि मुझे आज पारणा नहीं, तपस्या करनी है, तो वे भी तप कर लेगें / इस तरह तप में मैं इनसे आगे नहीं हो पाउंगा / अतः उन्हों ने साथी साधुओं से कपट करना शुरू किया / उन्हें पारणा के लिए कह देते और स्वयं तप कर लेते / इस तरह माया युक्त तप का परिणाम यह रहा कि उन्हों ने स्त्री वेद का बन्ध किया / इस से यह स्पष्ट हो गया कि उत्कृष्ट से उत्कृष्ट क्रिया में भी माया करना बुरा है। इसीलिए सूत्रकार ने माया रहित, मोक्षमार्ग पर गतिशील, संयम संपन्न व्यक्ति को ही अनगार कहा है / क्योंकि- ऐसा व्यक्ति ही सर्व प्राणियों की रक्षा कर सकता है / अनगार के यथार्थ स्वरूप को बताने के बाद सूत्रकार साधना या त्याग मार्ग पर प्रबिष्ट होने वाले साधक के कर्तव्य का वर्णन करते हुए, सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... .I सूत्र // 3 // // 20 // जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव अणुपालिज्जा, वियहित्ता विसोत्तियं // 20 //