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________________ 144 1 - 1 - 2 - 2 (15) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन माना गया है, आवश्यक कार्य में ही प्रवृत्ति करने का आदेश है और वह भी विवेक एवं यतना के साथ करने की आज्ञा है और अन्ततः उसका भी सर्वथा त्याग करने की बात कही है / इसका तात्पर्य यह हुआ कि निश्चय दृष्टि से प्रवृत्ति को त्याज्य माना है / इसलिए साधक अवस्था में अनिवार्यता के कारण संयम मार्ग में निर्दोष प्रवृत्ति को स्थान होते हुए भी उसके त्याग का लक्ष्य होने के कारण त्याग-प्रधान जीवन को निवृत्ति परक जीवन ही कहा जाता है / क्योंकि जैन दर्शन का मूल लक्ष्य समस्त कर्मो एवं क्रियाओं से निवृत्त होता है / अतः निवृत्ति के चरम लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सहायक भूत निर्दोष प्रवृत्ति करने वाला साधक ही वास्तव में अनगार है, मुनि है और पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा से पूरी तरह बचकर रहने का प्रयत्न करता भोग प्रधान जीवन में निवृत्ति को विशेष स्थान नहीं है / क्योंकि वहां जीवन का मूल्य भोग-विलास मान लिया गया है / और मूल्य निर्धारण के अनुरूप ही जीवन को ढाला गया है / या ढाला जा रहा है / यों कहना चाहिए कि जीवन में भोग-विलास एवं ऐश्वर्य को प्रधानता देने वाले व्यक्ति रात-दिन विषय-वासना एवं कषायों में निमग्न रहते हैं / उनका प्रत्येक क्षण, भौतिक साधनों को संगृहित करने तथा अपने भोग सुखों को पाने के लिए नई-नई पद्धतियोजनाएं बनाने में बीतता है / और येन-केन प्रकारेण वे भोग-सामग्री को; भौतिक-सुखसाधनों को बटोरने में संलग्न रहते हैं / और उसके लिए छल-कपट, असत्य, हिंसा आदि सभी दृष्कर्म करने में वे जरा भी संकोच नहीं करते / इस तरह रात-दिन सावध कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं / इस कारण पृथ्वीकाय ही क्या अन्य एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय ही नहीं, किन्तु पञ्चेन्द्रिय तक के प्राणी, उनके भोग सुख की आग में स्वाहा हो जाते हैं / इस तरह वे दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो कर स्वयं तथा प्राणीजगत के लिए भयावह बन जाते हैं / कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो अपने आपको साधु-संन्यासी कहते हैं और वे सर्व प्राणी जगत की रक्षा करना अपना मुख्य कर्तव्य बताते हैं / परन्तु उनका जीवन उनके कथन की विपरीत दिशा में गतिमान होता है / वे भी गृहस्थों की तरह पृथ्वी खनन आदि कार्यों में सक्रिय रूप से भाग ले कर पृथ्वीकाय तथा उसके आश्रित अन्य अनेक जीवों की हिंसा करते हैं / अतः उन्हें भी संसार की प्रवृत्ति में प्रवहमान बताया गया है / निष्कर्ष यह निकला कि त्याग प्रधान-निवृत्तिमय जीवन मोक्ष का प्रतीक है, उस से किसी भी प्राणी का अहित नहीं होता है, तथा भोग प्रधान या प्रवृत्तिमय जो जीवन है, वह संसार परिभ्रमण का कारण है / क्योंकि- सावध प्रवृत्ति से दूसरे प्राणियों की हिंसा होती है, उस से पाप कर्म का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप वह आत्मा संसार प्रवाह में प्रवहमान रहता है / निवृत्ति और प्रवृत्ति प्रधान जीवन में रहे हुए अन्तर को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने 'पश्य' शब्द का प्रयोग किया है / इसलिए मुमुक्षु को दोनों तरह के जीवन
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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