________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 2 - 2 (15) 143 मुनि कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करते हैं और उसके साथ-साथ पृथ्वी के आश्रित रहे हुए वनस्पति आदि अन्य जीवों का घात करते हैं / इस तरह सूत्रकार ने कुशल और अकुशल या निर्दोष और सदोष अनुष्ठान का प्रतिपादन किया है / जिन साधकों के जीवन में सद्ज्ञान है और क्रिया में विवेक एवं यतना है, उनकी साधना कुशल है, स्वयं के लिए तथा जगत के समस्त प्राणिओं के लिए हितकर है, सुखकर है / परन्तु अविवेक पूर्वक की जाने वाली क्रिया अकुशल अनुष्ठान है; भले ही उससे कर्ता को क्षणिक सुख एवं आनन्द की अनुभूति हो जाए, पर वास्तव में वह सावध अनुष्ठान स्वयं के जीवन के लिए तथा प्राणी जगत् के लिए भयावह है / प्रस्तुत सूत्र के आधार पर मानव जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है-१त्याग प्रधान-निवृत्तिमय जीवन और २-भोग प्रधान-प्रवृत्तिमय जीवन / साधारणतः प्रत्येक मनुष्य के जीवन में निवृत्ति-प्रवृत्ति दोनों ही कुछ अंश में पाई जाती हैं / त्याग प्रधान जीवन में मनुष्य दुष्कर्मो से निवृत्त होता है और सत्कर्म में प्रवृत्त भी होता है / यों कहना चाहिए कि- असंयम से निवृत्त होकर संयम मार्ग में प्रवृत्ति करता है; और जीवन में भोग-विलास को प्रधानता देने वाला व्यक्ति रात-दिन वासना में निमज्जित रहता है, पाप कार्यों एवं दुष्प्रवृत्तियों में प्रवृत्त रहता है और सत्कार्यों से दूर रहता है / तो प्रवृत्ति-निवृत्ति का समन्वय दोनों प्रकार के जीवन में परिलक्षित होता है और यह भी स्पष्ट है कि त्यागप्रधान-निवृत्तिमय जीवन भी प्रवृत्ति के बिना गतिशील नहीं रह सकता, जब तक आत्मा के साथ मन, वचन और काय-शरीर के योगों का संबन्ध जुड़ा हुआ है, तब तक सर्वथा प्रवृत्ति छूट,भी नहीं सकती / फिर भी त्याग-निष्ठ और भोगासक्त जीवन में बहुत अन्तर है दोनों की निवृत्ति-प्रवृत्ति में एकरूपता नहीं है / निवृत्तिपरक जीवन में निवृत्ति और त्याग की ही प्रधानता है- सावध प्रवृत्ति को तो उसमें ज़रा भी अवकाश नहीं है, जो योगों की अनिवार्य प्रवृत्ति होती है उसमें भी विवेकचक्षु सदा खुले रहते हैं, उनकी प्रत्येक क्रिया संयम को परिपुष्ट करने तथा निर्वाण के निकट पहुंचने के लिए होती है, अतः उनकी प्रवृत्ति में प्रत्येक प्राणि, भूत, जीव और सत्त्व की सुरक्षा का पूरा 2 ध्यान रहता है / वे महापुरुष त्रिकरण और त्रियोग से किसी भी जीव को पीड़ा एवं कष्ट पहुंचाना नहीं चाहते / दूसरी बात यह है कि उनकी हार्दिक भावना समस्त क्रियाओं से निवृत्त होने की रहती है / जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं एवं साध्य को सिद्ध करने के लिए उन्हें प्रवृत्ति करनी होती है / इस लिए वे सदा-सर्वदा इस बात का ख्याल रखते हैं किजीवन में कोई अयतना स्वरूप प्रमादाचरण न हो, अतः उनका खाना-पीना, चलना-फिरना, बैठना-उठना, बोलना आदि सब कार्य विवेक, यतना एवं मर्यादा के साथ होते हैं / इस से यह स्पष्ट हो गया कि साधक के जीवन में प्रवृत्ति होती है, परन्तु जीवन में उसका गौण स्थान