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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-2-3 (16) 145 D के स्वसंप को भली-भांति देख-समझकर पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा से बचना चाहिए, विरत होना चाहिए। "लज्जमाणा-लज्जमानाः'' शब्द का अर्थ है- लज्जा का अनुभव करना या लज्जित होना / हम देखते हैं कि कई व्यक्ति लोक लज्जा के कारण कई बार दुष्कर्मों से भी बच जाते हैं / लज्जा भी जीवन का एक विशेष गुण है / इसके कारण मनुष्य दुर्भावना के प्रवाह से बचता है, एवं पाप कार्य से भी बच जाता है / इसीलिए तो विद्वानों ने कहा है कि- लज्जा, आत्मगुणों की जननी ( मां ) है... "लज्जागुणौघ-जननी / " अर्थात् लज्जा याने संयम मार्ग में प्रवृत्त रहनेवाला साधु, आत्मगुणों को प्रगट करता है, अतः सतरह (17) प्रकार का जो संयम बताया गया है, उसकी गणना लोकोत्तर लज्जा में की गई है / 'अनगार' शब्द का अर्थ है-मुनि, साधु / अगार घर को कहते हैं, अत: जिसके पास अपना घर नहीं है अथवा जिसका अपना कोई नियत निवास स्थान नहीं है, उन्हें अनगार कहते हैं / या यों भी कह सकते हैं कि साधु का कोई नियत स्थान या घर नहीं होता, इसलिए वह अनगार कहलाता है... इस प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि- पृथ्वीकाय में असंख्यात जीव हैं और पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा में प्रवृत्तमान अन्य मत के साधुओं में साधुत्व का अभाव है / अब जो लोग, भौतिक सुख की अभिलाषा से मन, वचन, काय से सावध प्रवृत्ति करते, कराते और करने वाले का समर्थन करते हैं / वह अच्छा नहि है, क्यों कि- भौतिक सुख वास्तवमें सुख नहि है, किन्तु मृगजल की तरह सुखाभास हि है... यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रमें कहेंगे... I सूत्र // 3 // // 16 // तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणणपूयणाए जाइ-मरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभड़, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेड, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणड | // 16 // II संस्कृत-छाया : तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन, मानन, पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतु सः स्वयमेव पृथिवीशखं समारभते, अन्यैश्च पृथिवी
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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