________________ 140 #1-1-2 - 1(14) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जा सकता है कि आर्त को दुस्संबोध कहने का क्या अभिप्राय है ? वह सरलता से क्यों नहीं समझता ? इसका समाधान करने के लिए प्रस्तुत सूत्र में “आवियाणाए-अविज्ञातकः' पद का प्रयोग किया है / “आवियाणाए" का अर्थ है- विशिष्ट बोध या ज्ञान से रहित और यह हम प्रत्यक्ष में देखते हैं कि व्यावहारिक बोध से रहित मूर्ख किसी भी बात को जल्दी नहीं समझता। क्योंकि जिसमें बोध नहीं है, विवेक नहीं है, वह अपने हठ को छोड़कर जल्दी से सन्मार्ग पर नहीं आ सकता / टेढ़े लोहे को आग में तपाकर सीधा-सरल बनाया जा सकता है, क्योंकि उसमें लचक है, नमता है / परन्तु टेढ़े-मेढ़े ढूंठ-लकड़ी के खम्भे को सीधा बनाना दुष्कर ही नहीं, अति दुष्कर है / यही स्थिति विशिष्ट बोध-ज्ञान एवं विवेक से विकल जीवों की है, इसलिए उन्हें दुर्बोधि जीव कहा है / इस तरह संसार में परिभ्रमणशील जीव आरंभ-समारंभ का आश्रयीभूत होने से संत्रस्त है, व्यथित है, आर्त है / इस आर्तता के कारण से हि जिसमें मनुष्य विषय-कषाय एवं भौतिक सुखों के वशीभूत होकर कृषि, कूप, गृहनिर्माण, एवं खान-पान आदि के लिए पृथ्वीकाय के जीवों को संताप एवं पीड़ा पहुंचाते हैं तथा उनकी हिंसा करते हैं / यों कहना चाहिए कि कर्मजन्य आवरण की विभिन्नता के कारण संसार में अनेक प्रकार के जीव होते हैं- कछ विषय-कषाय से पीड़ित होते हैं, कुछ शरीर से जीर्ण होते हैं, कुछ प्रशस्त ज्ञान से रहित या विवेक-विकल होते हैं, अतः दुर्बोधि या विशिष्ट बोध से रहित होते हैं, और वे सभी अंश लोग, अपने भौतिक सुख प्राप्ति के लिए अनेक साधनों को जुटाने में पृथ्वीकायिक आदि जीवों का संहार करते हैं / इसलिए आर्य सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू से कहते हैं कि- "हे शिष्य ! इन अज्ञ जीवों की दुबोर्धता को देख-समझ / " इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि इन आर्त एवं अज्ञ जीवों की विवेक विकलता एवं दूसरे प्राणियों को संताप देने की बुरी भावना एवं सदोष कार्य पद्धति को देख-समझ कर, तुम सभी साधुजन ! पृथ्वीकाय के जीवों की रक्षा करो... प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया कि आर्त एवं दुर्बुद्धि युक्त जीव अपने विषयसुख के लिए पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं / इससे मन में यह प्रश्न सहज ही उठता है किपृथ्वीकाय जीव कितने हैं अर्थात् एक है, या अनेक ? इसी बात का समाधान, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 15 // संति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूव-सवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा अणेगसवे पाणे विहिंसइ // 15 // II संस्कृत-छाया :