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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-1-2 - 1(14) 139 पुराने वस्त्र आदि को अचित्त परिवून कहा है / और औदयिक भाव से युक्त प्राणी में प्रशस्त "ज्ञान याने सम्यग्ज्ञान के अभाव को भाव परिघुन कहा है / ___ यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि आत्मा उपयोग लक्षण वाला है / उसमें ज्ञान का कभी भी सर्वथा लोप नहीं होता / अतः प्रस्तुत प्रकरण में जो ज्ञान का अभाव कहा गया है, वह प्रशस्त सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा से समझना चाहिए, न कि ज्ञान मात्र की अपेक्षा से / क्योंकि एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी प्राणियों में ज्ञान का अस्तित्व रहता ही है / यह बात अलग है कि कुछ जीवों में उसका अपकर्ष दिखाई देता है, तो कुछ में उत्कर्ष। क्योंकि ज्ञान का विकास क्षयोपशम पर आधारित है / ज्ञानावरणीय कर्म का जितना अधिक क्षयोपशम होगा आत्मा में उतना ही ज्ञान का उत्कर्ष दिखाई देगा / और ज्ञानावरणीय कर्म जितना अधिक उदयभाव में होगा उतना ही अधिक ज्ञान का अपकर्ष परिलक्षित होगा / इसलिए भाव परिघुन शब्द के अर्थ में जो प्रशस्त ज्ञान का अभाव बताया गया हैं, वह सापेक्ष दृष्टि से समझना चाहिए / ज्ञान का सब से अधिक उत्कर्ष मनुष्य जीवन में परिलक्षित होता है और अधिक अपकर्ष एकेन्द्रिय जीवों में और उसमें भी सूक्ष्म निगोद के जीवों में दिखाई देता है / यों कहना चाहिए कि यहीं से ज्ञान का क्रमिक विकास होता है / जब आत्मा सक्षम से बादर एकेन्द्रिय में आता है, तो उसके ज्ञान में कुछ उत्कर्ष होने लगता है / इसी तरह द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में और पञ्चेन्द्रिय में भी संज्ञी-असंज्ञी, पशु-पक्षी आदि की अनेक योनियों में परिभ्रमण करता हुआ आत्मा जब मनुष्य जीवन में पहुंचता है, तो उसके ज्ञान का अच्छा विकास हो जाता है / मनुष्य जीवन का केन्द्र बिन्दु है / शेष योनियों में विकास का क्रम रहा हुआ है, परन्तु पूर्ण विकास का अवसर मनुष्य के अतिरिक्त किसी योनि में भी नहीं है / यहां तक कि देव भी पूर्ण विकास करने में सर्वथा असमर्थ हैं / मनुष्य ज्ञान के चरम उत्कर्ष को भी छ सकता है और अपकर्ष की चरम सीमा पर भी जा पहंचता है / वह उत्कर्ष और अपकर्ष के मध्य में खड़ा है / उसके एक और उदयाचल है, तो दूसरी और अस्ताचल / जब मानव उत्कर्ष की और गतिशील होता है तो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी बनकर सिद्वत्व को पा लेता है और जब पतन की और लुढ़कने लगता है, तो ठेठ निगोद में और उसमें भी सूक्ष्म निगोद में जा पहुंचता है और अनन्त काल तक अज्ञान अंधकार में भटकता फिरता है, विकास, उत्कर्ष के अमूल्य अवसर को हाथ से खो देता है / अस्तु प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त परिवून शब्द औदयिक भावों की अधिकता की अपेक्षा से व्यवहृत हुआ है / . "दुस्संबोध'' पद विषय-कषाय एवं मोह से युक्त तथा प्रशस्त ज्ञान से शून्य व्यक्तियों की अवस्था का परिसूचक है / 'दुस्संबोध' शब्द का सीधा सा अर्थ है- जिस व्यक्ति को धर्म मार्ग में या सत्कार्य में लगाना दुष्कर है अथवा जिसे प्रतिबोधित न किया जा सके / प्रश्न किया
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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