________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1 - 1 - 2 - 2 (15) 141 सन्ति प्राणिन: पृथक श्रिताः, लज्जमाना: पृथक पश्य अनगारा स्मः इति एके प्रवदमाना: यत् इदम् विरूपरूपैः थः पृथिवी कर्म-समारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारम्भमाणाः अन्यान् अनेक रूपान् प्राणिनः विहिंसन्ति // 15 // III शब्दार्थ : पाणा-पाणी / पुढ़ो-पृथक् रूप से / सिया-पृथ्वी के आश्रित हैं / लज्जमाणासंयमानुष्ठान-परायण पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा से विरत / पुढो-प्रत्यक्ष-ज्ञानी-अवधि, मनःपर्यव या केवल ज्ञान से युक्त तथा परोक्ष ज्ञानी-मति और श्रुत ज्ञान से युक्त / पासतु देख / एगे-कोई एक / अणगारामो त्ति-हम अणगार हैं इस प्रकार / पवयमाणा-बोलते हुए / जमिणं-इस पृथ्वीकाय को / विरूवसवेहि-अनेक तरह के सत्थेहि-शस्त्रों के द्वारा। पुढ़वि-कम्म-समारंभेण-पृथ्वीकाय-संबन्धी आरम्भ-समारम्भ करने से / पुढ़विसत्थंपृथ्वीकाय के शस्त्र का / समारम्भेमाणा-प्रयोग करते हुए / अण्णे अणेग सवे-उस पृथ्वीकाय के आश्रित अन्य अनेक तरह के। पाणे-प्राणियों की / विहिंसइ-हिंसा करता है / IV सूत्रार्थ : पृथ्वीकाय जीव भिन्न भिन्न शरीरवाले कर्मोके बंधन में बंधे हुए हैं... हे शिष्य ! देखो इन ज्ञानी संयमीओंको... और जो शाक्य आदि मतवाले कहते हैं कि- हम साधु हैं किंतु वे हि विरूप प्रकारके शस्त्रोंसे पृथ्वीकायकर्मसमारंभके द्वारा पृथ्वीकायमें शस्त्रका समारंभ करते हुए अनेक प्रकारके जीवोंकी हिंसा करतें है / / 15 // V टीका-अनुवाद : पृथ्वीकाय जीव एक शरीरमें एक जीव होते हैं, अतः वे प्रत्येक कहलातें हैं... उनका देह = शरीर अंगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण बहुत हि छोटा सा है, अनेक (असंख्य) जीवोंका शरीर इक्कठा होने पर हि दिखाई देते हैं... सचेतन ऐसी यह पृथ्वी अनेक पृथ्वीकाय जीवोंका पिंड है... ऐसे पृथ्वीकायके स्वरूपको जाननेवाले लज्जाशील संयमी साधु पृथ्वीकायके वधके कारणभूत आरंभ-समारंभसे निवृत्त होकर सत्तरह (17) भेदवाले संयमानुष्ठानमें तत्पर होते हैं... लज्जा के दो प्रकार है... 1. लौकिक लज्जा 2. लोकोत्तर लज्जा. 1. लौकिक लज्जा - पुत्रवधुको श्वसुरकी लज्जा... सुभट-सैनिक को संग्राम-युद्धकी लज्जा... लोकोत्तर लज्जा - सत्तरह (17) प्रकारका संयम...