________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1 - 1 - 9 // 107 III शब्दार्थ : अणेगरुवाओ जोणीओ-नाना प्रकार की योनियों को / सन्धेड़-प्राप्त करता है / विसवरूवे फासे-अनेक तरह के स्पर्शजन्य दुःखों का / पडिसंवेदेइ-संवेदन करता है, अनुभव करता है / IV सूत्रार्थ : अनेक प्रकारकी योनीओंका अनुसंधान करता है, और विरूप प्रकारके स्पर्शोका संवेदन करता है | // 9 // v टीका-अनुवाद : अनेक प्रकारके संकट एवं विकट आदि स्वरूप वाली और जहां जीव औदारिक आदि शरीरकी वर्गणाओंके पुद्गलोंसे मिश्रित होता है वह योनि है, प्राणीओंके उत्पत्तिस्थनको योनि कहते हैं, इन योनिओंके अनेक प्रकार हैं... वे इस प्रकार- संवृत; विवृत और उभयरूप... तथा शीत उष्ण और शीतोष्ण-उभयरूप... अथवा योनिओंके 84 लाख प्रकार है... वे इस प्रकार... पृथ्वीकाय की सात लाख योनीयां है... जल की भी " " " अग्नि की भी , , , वायुकाय की भी " प्रत्येक वनस्पतिकायकी दश लाख योनीयां है साधारण वनस्पतिकायकी चौदह लाख योनीयां है... बेइंद्रिय की दो लाख योनियां है तेइंद्रिय की " " चउरिंद्रियकी " " नारक की चार लाख योनीयां है देवों की " " तिर्यंच पंचेंद्रियोंकी भी चार लाख योनीयां है और मनुष्यकी चौदह लाख योनीयां है.. तथा शुभ और अशुभ के भेदसे योनीयां अनेक प्रकारसे. कही गइ है... वे इस प्रकार है- शीत, उष्ण आदि योनीयां 84 लाख है, इसी प्रकार शुभ और अशुभ योनीयां भी 84 लाख हि होती है... उनमें से शुभ योनीयां जो हैं, वह कहते हैं