________________ 106 卐१ - 1 - 1 - 9 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कारण ज्ञान को परिज्ञा कहा है और परिज्ञा के ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा, ये दो भेद करके इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि ज्ञान का महत्त्व हेय वस्तु का अर्थात् आत्मविकास में बाधक पदार्थों का त्याग करने में है / ___जो व्यक्ति कर्म एवं क्रिया के यथार्थ ज्ञान से रहित है, अपरिचित है वह स्वकृत कर्म के अनुरूप द्रव्य और भाव दिशाओं में परिभ्रमण करता है / जब तक आत्मा कर्मों से संबद्ध है, तब तक वह संसार के प्रवाह में प्रवहमान रहेगा / एक गति से दूसरी गति में या एक योनि से दूसरी योनि में भटकता फिरेगा / इस भव-भ्रमण से छुटकारा पाने के लिए कर्म एवं क्रिया के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करना तथा उसके अनुरूप आचरण बनाना मुमुक्षु प्राणी के लिए आवश्यक है / इसलिए आगमों में सम्यग् ज्ञान पूर्वक सम्यग् क्रिया करने का आदेश दिया गया है / "अयं पुरिसे जो........." प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'पुरिसे' यह पद 'पुरुष' इस अर्थ का बोधक है / पुरुष शब्द की व्याख्या करते हुए शीलांकाचार्यजी ने लिखा है कि "पुरि शयनात्पूर्णः सुख-दुःखानां वा पुरुषो जन्तुर्मनुष्यो वा" वृत्तिकार ने पुरुष शब्द के दो अर्थ किए है- १-सामान्य जीव और २-मनुष्य / इसकी निरुक्ति भी दो प्रकार की है / जब पुरुष शब्द की “पुरिशयनादिति पुरुषः'' यह निरूक्ति की जाती है तो इसका अर्थ होता है- शरीर में शयन करने से यह जीव पुरुष कहा जाता है / किन्तु जब इसकी यह निरूक्ति होती है कि- "सुख-दुःखानां पूर्णः इति पुरुषः" तब इसका अर्थ होता है- “जो सुखों और दुःखों से व्याप्त रहता है, वह पुरुष है" / इस तरह पुरुष शब्द से जीव एवं मनुष्य दोनों का बोध होता है / ___ प्रस्तुत सूत्र में "इमाओ दिसाओ' ऐसा कह कर पुनः जो “सव्वाओ दिसाओ" का उल्लेख किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि प्रथम पाठ में पठित दिशा शब्द सामान्य रूप से पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं का परिबोधक है तथा दूसरे पाठ में व्यवहृत दिशा शब्द, द्रव्य दिशा और भाव दिशा रूप इन सभी दिशाओं का परिचायक है / I सूत्र // 9 // अणेगसवाओ जोणीओ संधेड, विसवसवे फासे पडिसंवेदेड // 9 // संस्कृत-छाया : अनेकरूपा योनी: सन्धयति, विरूपरूपान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति // 9 //