________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 卐१-१-१-८॥ - विदिशाओं में / साहेति = संचरण करता है... IV सूत्रार्थ : कर्म-समारंभोंको नहि जाननेवाला यह वह पुरुष है, कि- जो इन दिशा एवं विदिशाओंमे वारंवार संचरण (आवागमन) करता है... सभी दिशा और सभी विदिशाओंको प्राप्त करता है॥ 8 // v टीका-अनुवाद : जो इस शरीरमें रहनेवाला है अथवा तो सुख और दुःखसे पूर्ण है वह पुरुष है... प्राणी, जंतु या मनुष्य कहलाता है... व्यवहार नीतिमें पुरुषकी प्रधानता है, अतः पुरुष कहा है... इस कथनसे चारों गतिके सभी जीवोंका कथन समझ लीजीयेगा... ऐसा प्राणी दिशाओंमे अथवा विदिशाओंमें संचरण करता है... कर्मोकी परिज्ञा जीसने नहिं करी है वह जीव अपरिज्ञातकर्मा कहलाता है... ऐसा अपरिज्ञात-कर्मा जीव हि दिशा आदिमें भटकता है, अन्य जीव नहिं भटकतें... ऐसा कहनेसे अपरिज्ञातात्मा और परिज्ञात क्रिया स्वरूप जीवका कथन हो जाता है... अब जो अपरिज्ञातकर्मा-जीव है वह सभी दिशाएं और सभी अनुदिशाओंमें अपने कीये हुए कर्मोके साथ संचरण करता है... यहां 'सर्व' शब्दके कथनसे सभी प्रज्ञापक दिशाएं एवं सभी भावदिशाओं का संग्रह कर लीजीयेगा... वह अपरिज्ञातकर्मा-जीव, जो कुछ सुख एवं दुःख पाता है, वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने संसार-परिभ्रमण एवं दुःख-प्राप्ति की कारणभूत सामग्री का उल्लेख करके सुखाभिलाषी मुमुक्षु को उससे निवृत्त होने का उपदेश दिया है / “अपरिण्णायकम्मा'' अर्थ है - अपरिज्ञात - कर्मा / जो प्राणी कर्म बन्धन की कारणभूत क्रियाओं के स्वरूप से तथा उसकी हेय-उपादेयता से अपरिचित है, उसे अपरिज्ञातकर्मा कहा है / क्योंकि उसमें, उसे ज्ञान के द्वारा संभवित कर्म और क्रिया के स्वरूप का सम्यग् बोध नहीं है, और सम्यग् बोध नहीं होने के कारण वह अज्ञानी व्यक्ति न हेय क्रिया का परित्याग कर सकता है और न उपादेय को स्वीकार कर सकता है / क्योंकि हेय और उपादेय क्रियाका त्याग एवं स्वीकार वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे उस वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान है / ज्ञान में जानना और त्यागना दोनों का समावेश हो जाता है / इसी