SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 104 // 1-1-1-8 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन और उसकी उपादेयता भी संसार सागर से पार होने तक है, उसके बाद वह भी उपादेय नहीं है / अतः ऐसा कहना चाहिए कि- शुभ परिणामों से की जाने वाली शुभ क्रियाएं साधक अवस्था तक उपादेय है और सिद्ध अवस्था को पहुंचने पर वह भी हेय है ! क्योंकि- उसकी आवश्यकता साध्य की सिद्धि के लिए है, अतः साध्य के सिद्ध हो जाने पर, फिर उसकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती है / अतः इस हेयोपादेयता को समझने के लिए क्रिया संबन्धी ज्ञान की आवश्यकता है / और इसी कारण ज्ञान का जीवन में विशेष महत्व माना गया है / इससे तीन बातें स्पष्ट होती है- १-ज्ञान के द्वारा वस्तु-तत्त्व का यथार्थ बोध हो जाता है, आत्मा क्रिया के हेय-उपादेय के स्वरूप को भली-भांति समझ लेता है, २-साध्य सिद्धि में सहायक क्रियाओं का अनुष्ठान करता है और 3-ज्ञान एवं क्रिया दोनों की सम्यक् साधनाआराधना करके आत्मा एक दिन सिद्धि को प्राप्त कर लेती है, अर्थात् समस्त क्रियाओं से मुक्त हो जाती है, जन्म, जरा और मृत्यु से सदा के लिए छुटकारा पा जाती है / अतः मुमुक्षु के लिए क्रियाओं का परिज्ञान करना आवश्यक है / प्रस्तुत सूत्र में कर्म-बन्धन के हेतुभूत क्रियाओं की इयत्ता-परिमितता का वर्णन किया गया है / और साथ में यह प्रेरणा भी दी गई है, कि- साधक को क्रिया के स्वरूप का बोध करना चाहिए और उन क्रियाओं से निवृत्त होने का प्रयत्न भी करना चाहिए / क्योंकि- इनसे निवृत्त होकर ही साधक कर्म-बन्धन एवं संसार-परिभ्रमण के दुःखों से छुटकारा पा सकता है / अब जो व्यक्ति कर्म-बन्धन की कारण भूत इन क्रियाओं से विरत नहीं होता है, उसे जिस फल की प्राप्ति होती है, उसका वर्णन सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेगें... I सूत्र // 8 // अपरिण्णायकम्मा खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ अणुसंचरड़, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ साहेति // 8 // II संस्कृत-छाया : अपरिज्ञातकर्मा खल्वयं पुरुषो यः, इमा दिशा, अनुदिशा अनुसंचरति, सर्वा दिशाः, सर्वा अनुदिशाः साधयति // 8 // III शब्दार्थ : ___जो पुरिसे-जो पुरुष / अपरिण्णायकम्मा-अपरिज्ञात-कर्मा होता है / खलु-निश्चय से / अयं-यह पुरुष / इमाओ दिसाओ, अणुदिसाओ-इन दिशा-विदिशाओं में। अणुसंचरइपरिभ्रमण करता है / सव्वाओ दिसाओ-सभी दिशाओं में / सव्वाओ अणु दिसाओ-सभी
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy