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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 卐१ - 1 - 1 - 7 // 103 ' में कर्म का बन्ध न के बराबर होता है / वे कर्म-पुद्गल आते हैं और तुरन्त झड़ जाते हैं, आत्मा के साथ दीर्घकाल तक नहीं रह पाते। अस्तु, हम यों कह सकते हैं कि राग-द्वेष की परिणति से युक्त क्रियाएं कर्म-बन्ध के कारणभूत मानी है, ओर वे 27 ही हैं, इस बात को भली-भांति जान-समझ लेना चाहिए / - यह सत्य है कि- क्रियाओं से शुभ एवं अशुभ दोनों तरह के कर्म पुद्गलों का आगमन होता है / शुभ कर्म पुद्गल आत्म विकास में सहायक होते हैं, फिर भी वे हैं तो त्याज्य ही। क्योंकि- उनका सहयोग, विकास अवस्था में या यों कहिए कि- साधना काल में उपयोगी होने से साधक अवस्था में आदरणीय भी है, परन्तु सिद्ध अवस्था में उनकी कोई आवश्यकता नहीं रहती, अतः उस अवस्था में क्रिया मात्र ही त्याज्य है / और इस निश्चयनय की दृष्टि से शुभ क्रिया भी कर्म-बन्ध का अर्थात संसार में (भले ही स्वर्ग में ही ले जाए फिर भी है तो संसार ही, बंधन ही) परिभ्रमण कराने का कारण होने से निश्चय दृष्टि से सदोष एवं त्याज्य है / निश्चय दृष्टि से क्रिया सदोष है, फिर भी आत्म-विकास के लिए उस का ज्ञान करना * आवश्यक है / दोष को दोष कहकर उस क्रिया की सर्वथा उपेक्षा कर देना या उसके स्वरूप को समझना ही नहीं, यह जैन धर्म को मान्य नहीं है / वह दोषों का परिज्ञान करने की बात भी कहता है / क्योंकि- जब तक दोषों का एवं उन के कार्य का परिज्ञान नहीं होगा, तब तक साधक उससे बच नहीं सकता / इसलिए कर्मबन्ध की कारण भूत क्रियाओं के स्वरूप एवं उनसे होने वाले संसार परिभमण के चक्र को समझना-जानना भी जरूरी है / यही बात सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताई है कि मुमुक्षु को इनके स्वरूप को जानना चाहिए। क्योंकिजीवन में ज्ञान का विशेष महत्त्व है, उसके बिना जीवन का विकास होना कठिन ही नहीं असंभव भी है। ज्ञान के महत्त्व को बताते हुए भगवान महावीर ने यह कहकर ज्ञान की उपयोगिता एवं महत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि ज्ञान-सम्पन्न आत्मा जीवादि नव तत्त्वों को जान लेने के बाद, दीर्घकाल तक संसार में परिभमण नहिं करता... वस्तुत: ज्ञान के विना हेय-उपादेय का बोध नहीं होता / इसलिए सबसे पहले ज्ञान की आवश्यकता है, उसके बाद अन्य साधना या क्रियाओं की / इसी दृष्टि से सूत्रकार ने कर्म-बन्ध की हेतुभूत क्रियाओं की जानकारी कराई है / . जब तक साधक को क्रिया संबन्धी जानकारी नहीं हो जाती, तब तक वह साधना के क्षेत्र में विकास नहीं कर सकता, मुक्ति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता / संसार-सागर को पार करने के लिए क्रियाओं के हेयोपादेयता का परिज्ञान करना ज़रूरी है / क्योंकि- सभी क्रियाएं एक समान नहीं है / हिंसा करना, जूठ बोलना, छल-कपट करना आदि भी क्रिया है और दया करना, मरते हुए प्राणी को बचाना, सत्य बोलना आदि भी क्रिया है / किन्तु दोनों में परिणामगत अन्तर है और उसी अन्तर के कारण एक हेय है, तो दूसरी उपादेय है
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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