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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 1 - 5 // 91 - "जे एगं जाणड से सव्वं जाणड, जे सव्वं जाणड से एगं जाणइ" वस्तु का विवेचन करने के लिए सब से पहले ज्ञान की आवश्यकता है / जब तक जिस वस्तु के स्वरूप का परिज्ञान नहीं है, तब तक उसके संबन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता / इसी कारण सूत्रकार ने पहले ज्ञान प्राप्ति के साधन का विवेचन किया और उसके पश्चात् आत्मा, लोक, कर्म एवं क्रिया के स्वरूप को स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करनेवाली आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी आदि कथनवाला सूत्र कहा। ज्ञान का जितना अधिक विकास होता है, व्यक्ति उतना ही अधिक, आत्मा आदि द्रव्यों को स्पष्ट एवं असंदिग्ध रूप से जानता-समझता है, एवं परिज्ञान विषय का विवेचन एवं प्रतिपादन भी कर सकता है जैन दर्शन के अनुसार आत्मा शुभाशुभ कर्म का कर्ता एवं कर्म जन्य अच्छे-बुरे फलों फा भोक्ता, असंख्यात प्रदेशी, शरीरव्यापी, अखण्ड, चैतन्य रूप एक एवं स्वतन्त्र द्रव्य है / उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है / वह पर्यायों की अपेक्षा प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, तो द्रव्य की अपेक्षा से सदा अपने रूप में स्थित रहने से नित्य भी है / वास्तव में देखा जाए तो वह आत्मा न सांख्य मत के अनुसार एकांत-कूटस्थ नित्य है, और न बौद्धों द्वारा मान्य एकान्त अनित्य-क्षणिक ही है / जैन दर्शन के अनुसार दुनिया का कोई भी पदार्थ न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य है / प्रत्येक पदार्थ में नित्यता और अनित्यता दोनों धर्म युगपत् स्थित हैं / किसी भी द्रव्य में एकान्तता को अवकाश ही नहीं है / क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अनेक गुणयुक्त है / अत: जैन दर्शन ने पदार्थ में अनुभव सिद्ध परिणामी नित्यता का स्वीकार किया है / क्योंकि ज्ञान-दर्शन आत्मा का गुण है और उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, ज्ञानदर्शन की पर्यायें बदलती रहती है तथा कर्म से बद्ध आत्मा के शरीर में, मानसिक चिन्तन में, विचारों की परिणति में, परिणामों में तथा नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव आदि गतियों की अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहेता है, परन्तु इन सब पर्यायिक परिवर्तनों में आत्मा अपने स्वरूप में सदा स्थित रहता है, उसके असंख्यात प्रदेशों तथा शुद्ध स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आता, इस दृष्टि से आत्मा नित्य भी है, और अनित्य भी, अर्थात्-परिणामी नित्य आत्मा, नित्यानित्य है / यही सापेक्ष दृष्टि, आत्मा को एक और अनेक मानने में तथा उसके आकार परिणाम के संबन्ध में भी रही हुई है / जैन दर्शन, वेदान्त सम्मत एक आत्मा तथा नैयायिकों द्वारा मान्य अनेक आत्मा के एकान्त पथ को न स्वीकार कर, वह जैनदर्शन, उन दोनों के आंशिक सत्य को स्वीकार करता है / आत्म-द्रव्य की अपेक्षा से लोक में स्थित अनन्त-अनन्त आत्माएं समानगुण वाली हैं, सत्ता की दृष्टि से सब में समानता है, क्योंकि- सभी आत्माएं असंख्यात
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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