________________ 92 1 - 1 - 1 - 5 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रदेशी हैं, उपयोग गुण से युक्त हैं, परिणामी नित्य है / इसी अपेक्षा से स्थानांग सूत्र में कहा . गया है-“एगे आया" अर्थात् आत्मा एक है / यह हुइ समष्टि की अपेक्षा, परन्तु व्यष्टि की अपेक्षा सभी आत्माएं अलग-अलग हैं, सब का ज्ञान-दर्शन एवं उसकी अनुभूति अलग-अलग है सब का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है / और संसार में परिभ्रमणशील अनन्त-अनन्त आत्माओं का सुख-दुःख का संवेदन अलग-अलग है, सबका उपयोग भी विभिन्न प्रकार का है-किसी में ज्ञान का उत्कर्ष है, तो किसी में अपकर्ष है / इस अपेक्षा को सामने रखकर आगम में कहा गया है कि आत्माएं अनन्त हैं / और दोनों अपेक्षाएं सत्य हैं, अनुभव गम्य है / अस्तु, निष्कर्ष यह रहा कि आत्मा एक भी है और अनेक भी है / उसे एकान्ततः एक या अनेक न कह कर ‘एकानेक' कहना एवं मानना चाहिए / आत्मा के परिमाण के सम्बन्ध में भी सभी दर्शनों में एकरूपता नहीं है / कुछ लोग, आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं. तो कछ विचारक-अणपरिमाण वाला मानते हैं / जैनों को दोनों मान्यताएं स्वीकार नहीं है, वे आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मानते हैं / अर्थात् अनियत परिमाण वाला / क्योंकि शद्ध आत्मा का कोई परिमाण है नहीं, परिमाण-आकार, रूपी पदार्थों के होते हैं और आत्मा अरूपी है / फिर भी आत्म प्रदेशों को स्थित होने के लिए कुछ स्थान भी अवश्य चाहिए / इस अपेक्षा से आत्म प्रदेश जितने स्थान को घेरते हैं / वह आत्मा का परिमाण कहा जाता है / आत्माएं अनन्त हैं और प्रत्येक आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं अर्थात् प्रदेशों की दृष्टि से सब आत्माएं तुल्य प्रदेश वाली हैं / और आत्मप्रदेश स्वभाव से संकोच विस्तार वाले है / जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिलता है, उसी के अनुरूप वे अपने आत्मप्रदेशों को संकोच भी कर लेती हैं / और फैला भी देती हैं / जैसे-विशाल कमरे को अपने प्रकाश से जगमगाने वाला दीपक, जब छोटे से कमरे में रख दिया जाता है तो वह उसे ही प्रकाशित कर पाता है अथवा उसका विराट प्रकाश छोटे से कमरे में समा जाता है / यों कहना चाहिए कि दीपक को छोटे-से कमरे से उठाकर विशाल महल में ले जाते हैं तो कमरे के थोड़े से आकाश प्रदेशों पर स्थित प्रकाश महल के विस्तृत आकाश प्रदेशों पर फैल जाता है, और महल से कमरे में आते ही अपने प्रकाश को संकोच लेता है / यही स्थिति आत्म प्रदेशों की है / जैसा-छोटा या बड़ा शरीर मिलता है उसी में असंख्यात आत्म-प्रदेश स्थित हो जाते है / सिद्ध अवस्था में शरीर नहीं है, वहां आत्मा का परिमाण इस प्रकार समझना चाहिए- जिस शरीर में से आत्मा मुक्त अवस्था को प्राप्त होती है, उस शरीर के तीन भाग में से, दो भाग जितने आकाश प्रदेशों को वह आत्मा घेरता है / शरीर की दृष्टि से देखें, तब अनन्त आत्माओं के विभिन्न आकार वाले संस्थान हैं, क्योंकि- विभिन्न आकार युक्त शरीरों में से हि अनंत आत्माएं सिद्ध हुए हैं, अत: सभी आत्माओं का परिमाण-आकार एक एवं, नियत नहीं हो सकता / इसी अपेक्षा से जैन दर्शन ने आत्मा का मध्यम अर्थात अनियत या शरीर प्रमाण आकार माना