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________________ 20 卐१-१-१-५॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आगममें भी यह बात प्रसिद्ध है कि- क्रियाके कारणसे हि कर्मबंध होती है... आगम-पाठका . अर्थ इस प्रकार है- जब तक यह जीव कंपित होता है, चलता है, स्पंदित होता है, संघट्टित होता है, यावत् उन उन भावोंमें परिणत होता है, तब तक यह जीव आठ प्रकारके, सात प्रकारके, छह प्रकारके या एक प्रकार का कर्मबंध करता है, और अयोगी होकर अबंधक भी बनता है... ऐसा कहने से यह सिद्ध हुआ कि- जो कर्मवादी है वह हि क्रियावादी है... अत: ऐसा कहनेसे सांख्यमतको मान्य ऐसा आत्माका अक्रियावादित्वका निराश कीया है... अब पूर्वोक्त आत्मा के परिणाम स्वरूप क्रियाको विशिष्ट कालसे कहनेवाले, 'अहं' पदसे निर्दिष्ट आत्मा को उसी हि भवमें अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान एवं जातिस्मरणज्ञानसे भिन्न किंतु तीनों कालको ग्रहण करनेवाले मतिज्ञानसे भी वस्तु स्वभाव का बोध होता हैं, यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : पूर्व सूत्र में बताए गये साधनों से जब किन्हीं जीवों को अपने स्वरूप का बोध हो जाता है, और उन्हें आत्म-स्वरूप का भी भलीभांति ज्ञान हो जाता है / तब वह आत्मा आत्मा के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है / आत्मतत्त्व का यथार्थ रूप से विवेचन करने वाले व्यक्ति को ही आगमिक भाषा में आत्मवादी कहा है / आचार्य शीलांकाचार्यजी ने टीका में लिखा है कि "आत्मवादीति आत्मानं वदितुं शीलमस्येति' / अर्थात्-आत्मतत्त्व के स्वरूप को प्रतिपादन करनेवाला व्यक्ति आत्मवादी कहलाता है। जो व्ययित आत्म स्वरूप का ज्ञाता है, वही लोक के यथार्थ स्वरूप को जान सकता है, और इस क्रम से लोक स्वरूप को भलीभांति जानता है, वही कर्म और क्रिया का परिज्ञाता होता है / इस तरह एक का ज्ञान दूसरे पदार्थ को जानने में सहायक है / जब आत्मा एक तत्त्व को भलीभांति जान लेता है, तो वह दूसरे तत्त्व के स्वरूप को भी सुगमता से समझ सकता है, क्योंकि लोक में स्थित सभी तत्त्व एक दूसरे से सम्बंधित हैं / आत्मा भी तो लोक में ही स्थित है, लोक के बाहर उसका अस्तित्व ही नहीं है, इसी तरह आत्मा में लोक एवं कर्म का संबन्ध रहा हुआ है / कर्म भी, लोक-संसार में रहे हुए जीवों को हि बन्धते हैं / कर्म और क्रिया का संबन्ध तो स्पष्ट ही है / इसलिए जो व्यक्ति आत्मा के स्वरूप को भलीभांति जान लेता है, तो फिर उससे लोक का स्वरूप, कर्म का स्वसप एवं क्रिया का स्वरूप अज्ञात नहीं रहता। इसी आचारांग सूत्र में आगे बताया है कि 'जो व्यक्ति एक को जानता है वह सब को जानता है और जो सब को जानता है वह एक को जानता है-'
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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