________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका卐 1-1-1-2 // 63 आया हूँ" आदि शब्दों का प्रयोग ही व्यर्थ सिद्ध हो जायगा / परंतु ऐसा होता नहीं, यह प्रयोग वास्तविक है / और इसी से यह सिद्ध होता है कि आत्माएं अनन्त हैं और हर कोई आत्मा लोक के एक देश में स्थित हैं / जैन और वैदिक उभय परंपराओं में योग शब्द का प्रयोग मिलता है / शब्द साम्यता होते हुए भी दोनों सम्प्रदायों में योग शब्द के किए जाने वाले अर्थ में एक रूपता नहीं मिलती। दोनों इसका अपने ढंग से स्वतन्त्र अर्थ करते हैं / जैन दर्शन में योग शब्द का प्रयोग मन, वचन और काया की प्रवृत्ति में किया गया है / मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रिया को ही योग कहा गया है और मुमुक्षु के लिए आगमों में यह आदेश दिया गया है कि अपने मन, वचन और शरीर के योगों को अशुभ कार्यों से, पाप कार्यों से हटा कर शुभ कार्य में या संयम मार्ग में प्रवृत्त. करें / इसे आगमिक परिभाषा में गुप्ति और समिति कहते हैं / जैन दृष्टि से मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को योग कहते हैं / और पातञ्जल योग दर्शन वैदिक संप्रदाय का योग विषयक सर्वमान्य ग्रंथ है / प्रस्तुत ग्रंथ में योग की परिभाषा करते हुए पतञ्जलि ने लिखा है-"चित्त की वृत्तियों का निरोध करना अथवा उन की प्रवृत्ति को रोकना योग है / " दोनों परम्पराओं की मान्य परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन में योग शब्द का प्रयोग चित्त वृत्ति के निरोध में नहीं, बल्कि मन, वचन एवं शरीर के व्यापार में किया गया है / इस त्रियोग में चिंतन, मनन की प्रधानता रहती है / इस योग पद्धति से यदि प्रस्तुत * सत्र के आध्यात्मिक रहस्य पर गहराई से सोचा-विचारा एवं चिंतन-मनन किया जाए तो साधना के क्षेत्र में इस सूत्र का बहुत महत्त्व बढ़ जाता है / मुमुक्षु के लिए यह सूत्र बहुत ही उपयोगी है। प्रस्तुत सूत्र के वर्णनक्रम से हि सूत्रकार ने सर्वप्रथम पूर्वादि चार दिशाओं का और तदनंतर ऊर्ध्व और अधो इन दो दिशाओं का और अंत में विदिशाओं का क्रमशः वर्णन किया है / पूर्व आदि सभी दिशाओं का व्यवहार मेरू पर्वत को केंद्र मानकर किया जाता है परंतु इसके अतिरिक्त व्यक्ति अपनी अपेक्षा से भी चिंतन कर सकता है / जब ध्यानस्थ व्यक्ति एक पदार्थ पर दृष्टि रखकर मानसिक चिंतन करता है, तब वह अपनी नाभि को केन्द्र मानकर सोचता है कि मैं पूर्व-पश्चिम आदि किस दिशा-विदिशा से आया हूं / इस तरह चिंतन-मनन में योगों की प्रवृत्ति होने पर मन में एकाग्रता आती है और इससे आत्मा में विकास होने लगता है / और चिंतन की गहराई में गोते लगाते 2 ध्यानस्थ आत्मा को विशिष्ट बोध भी हो जाता है / यदि चिंतन-मनन का प्रवाह एक रूप से निधि गति से सतत चलता रहे और विचारों में स्वच्छता एवं शुद्धता बनी रहे तो उसे यह भी परिज्ञात हो जाता है कि मैं किस दिशा से आया हूं / फिर उस से यह रहस्य छिपा नहीं रहता / और दिशा सम्बन्धी आगमन के रहस्य