________________ 62 1 - 1 - 1 - 2 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जाते हैं। यह समुद्घात सभी सर्वज्ञ नहीं करते, वे ही केवल ज्ञानी करते हैं, जिनका वेदनीय नाम एवं गोत्र कर्म, आयुष्य कर्म से अधिक रह गया है, और उसे थोड़े से समय में ही क्षय करना है / इस तरह वे अपने आत्म-प्रदेशों को लोक में सर्वत्र फैला देते हैं और तुरन्त समेट भी लेते है / इस अपेक्षा से वे सर्वव्यापी भी है परन्तु वस्तुतः वे भी सदा-सदा के लिए सर्वव्यापी नहीं हैं / सर्वज्ञ एवं सिद्धों को एक दूसरी अपेक्षा से भी सर्वव्यापक माना गया है / वह हैज्ञान की अपेक्षा / क्योंकि वे तीनों लोक एवं तीनों काल में स्थित सभी द्रव्यों को जानते देखते हैं / लोक का एक प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जिसे वे नहीं जानते हों / अस्तु, ज्ञान की अपेक्षा वे सर्वव्यापक हैं अर्थात् समस्त लोक के द्रव्यों एवं भावों को जानते- देखते हैं / परन्तु आत्म प्रदेशों की अपेक्षा से तो वे भी एक देश व्यापी हैं / क्योंकि आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से आत्मा को सर्वव्यापी मानने से बन्ध एवं मोक्ष नहीं घट सकता / फिर तो वह संसार एवं मोक्ष में सर्वत्र स्थित रहेगा ही, तब उसे मुक्ति पाने के लिए त्याग-तप एवं धर्म-कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं रह जायगी / अतः आत्मा सर्वव्यापक मानना युक्तिसंगत एवं अनुभवगम्य नहीं कहा जा सकता है / आत्मा को एक मानना भी यथार्थ से परे हैं / क्योंकि आत्मा को एक मान लेते है, तो फिर संसारी जीवों में जो कर्मजन्य विभिन्नता दृष्टिगोचर हो रही है, वह नहीं होनी चाहिए। संसार में परिलक्षित होने वाले अनन्त-अनन्त जीवों की आत्मा एक है, तो फिर कोई सुखी, कोई दुःखी, कोई निर्धन, कोई धनवान, कोई रोगी, कोई स्वस्थ, कोई कमज़ोर, कोई ताकतवर, कोई दुबला, कोई भारी शरीर वाला दिखाई देता है, यह भेद भी नहीं रहना चाहिए / फिर तो एक के सुखी होते ही सारा संसार सुखी हो जाना चाहिए एवं एक के दःखी होते ही सर्वत्र दुःख की काली घटाएं छा जानी चाहिएं / परन्तु, ऐसा होता नहीं / व्यवहार में सबके सुखदुःख अलग 2 दिखाई देते हैं / एक के सुखी होने पर सारा संसार तो क्या, सारा गांव भी सुखी नहीं होता और एक के दुःखी होने पर सभी मुसीबत एवं वेदना के दलदल में नहीं धंसतें। जगत् के सभी जीव अपने-अपने शुभ अशुभ कर्म के अनुरूप सुख दुःख का संवेदन करते हैं / अतः सभी आत्माएं एक नहीं, किन्तु व्यक्तिशः विभिन्न हैं, अनेक हैं, अनंत हैं / "मैं आया हूं' प्रस्तुत वाक्य से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जैन दर्शन एकांत रूप से आत्मा को एक एवं सर्वव्यापक नहीं मानता है / सभी आत्माएं पृथक् 2 हैं, सबका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है और लोक के एक देश में स्थित हैं / इसी कारण वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ जा सकती हैं / यदि आत्मा एक एवं सर्व व्यापक हो, तब तो एक आत्मा के चलने पर सभी चलने लगेंगी और एक के ठहरने पर सभी स्थित हो जाएंगी / इस तरह सांसारिक आत्माओं में होने वाला गमनागमन एवं हरकतें ही बंद हो जाएंगी और फिर "मैं