________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // १-१-१-२卐 “आगओ अहमंसि" वाक्य का अर्थ है-मैं आया हूं / सूत्रकार ने उक्त पदों को उपन्यस्त करके जैन दर्शन की आत्मा संबंधी मान्यता की और संकेत कर दिया है / जैन दर्शन आत्मा को अनन्त और लोक के एक देश में स्थित या संसारी आत्मा को शरीर परिमाण मानता है। कुछ दार्शनिक आत्मा को एक और सर्वव्यापक मानते हैं / वस्तुतः ऐसा है नहीं, इसी बात को स्पष्ट करने के लिए यह कहा गया है कि 'मैं आया हूं' यदि ऐसा मान लिया जाए कि दुनिया में एक ही आत्मा है और वह सर्व व्यापक है तो “मैं किस दिशा से आया हूं तथा किस दिशा या गति में जाऊंगा ?" ऐसा प्रयोग घट नहीं सकता / फिर पुनर्जन्म एवं बंध-मोक्ष, सुखदुःख आदि अवस्थाएं भी घटित नहीं हो सकेंगी / क्योंकि जब आत्मा सर्वव्यापक है तो वह नारक, देव, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि सभी गतियों में स्थित है, फिर एक गतिका आयुष्य पूर्ण करके दूसरी गति में जाने की बात एवं जन्म-मरण की बात यक्ति-संगत प्रतीत नहीं होती। जब यह सब जगह व्याप्त है तब तो वह बिना मरे या जन्मे ही यत्र-तत्र-सर्वत्र जहां जाना चाहे पहुंच जाएगा / न उसे गति करने की आवश्यकता है और न अन्य क्रिया करने की ही ज़रुरत है / परन्तु ऐसा होता नहीं है / व्यवहार में भी हम स्वयं चलकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते-आते हैं / यही स्थिति पुनर्जन्मके सम्बन्ध में समझनी चाहिए / संसारी आत्मा कार्मण शरीर के साधन से एक गति से दूसरी गति की यात्रा तय करती है / इस से स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि आत्मा सर्व व्यापक नहीं, देश व्यापक है / वह लोक के एक देश में स्थित है या यों भी कह सकते हैं कि संसारी आत्मा अपने शरीर परिमाण स्थान में स्थित हैं और मुक्त आत्माएं सिद्धशिला में-जो 45 लाख योजन की लम्बी-चौड़ी है और जिस की एक करोड़ ब्यालीस लाख छत्तीस हजार तीन सौ उन्नपचास योजन से कुछ अधिक परिधि है, उसके एक गाऊ अर्थात् दो मील के ऊपर के छठे हिस्से में याने 333 1/3 धनुष प्रमाण लोक के अन्तिम प्रदेश को स्पर्श किए हुए स्थित हैं / इस तरह सिद्ध या संसारी कोई भी आत्मा समस्त लोक व्यापी नहीं, बल्कि लोक के एक देश में स्थित हैं / जैन दर्शन ने भी संसार में स्थित सर्वज्ञ एवं सिद्धों की आत्मा को एक अपेक्षा से सर्व व्यापक माना है / वह अपेक्षा यह है कि जब केवल ज्ञानी के आयुष्य के अन्तिम भाग में नाम गोत्र एवं वेदनीय कर्म अधिक एवं आयुष्य कर्म थोड़ा रह जाता है, तब उस समय उक्त तीन कर्मो और आयुष्य कर्म में सन्तुलन लाने के लिए वे केवली समुद्घात करते है / उस समय वे पहले समय में अपने आत्मप्रदेशों को दण्डाकार फैलाते हैं, दूसरे समय में उन्हें कपाट के आकार में बदलते हैं, तीसरे समय में मन्थनी के रूप में अपने आत्मा को फैलाते हैं और चौथे समय में वे अपने आत्म-प्रदेशों को सारे लोक में फैला देते हैं / उनके आत्म-प्रदेश लोक के समस्त आकाश प्रदेशों को स्पर्श कर लेते हैं, पांचवें समय में वे पुनःअपने आत्म प्रदेशों को समेटने लगते हैं और उन्हें मंथनी की स्थिति में ले आते हैं, छठे समय में फिर से कपाट और सातवें समय में दंड के आकार में ले आते हैं, एवं आठवें समय में अपने शरीर में स्थित हो