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________________ 64 // 1-1 - 1 - 3 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का आवरण अनावृत्त होते ही उसकी आत्मा अपने स्वरूप में रमण करने लगती है, साधना एवं ध्यान या चिन्तन-मनन में संलग्न हो जाती है / इस तरह प्रस्तुत सूत्र मानसिक एवं वैचारिक चिन्तन के लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है / इससे विचारों में, चिन्तन में एवं साधना के प्रवृत्ति क्षेत्र में एकाग्रता आती है, ज्ञान का विकास होता है / प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि संसार में ऐसे भी अनेक जीव है, जिनको ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की न्यूनता के कारण इस बात का परिबोध नहीं होता कि मैं पूर्व-पश्चिम आदि किस दिशा-विदिशा से आया हूं / ऐसे जीवों को 'किस दिशा से मैं आया हूं' इसके अतिरिक्त और भी जिन अनेक बातों का परिज्ञान नहीं होता है, उनका निर्देश सूत्रकार आगे के सूत्र में करेंगे... I सूत्र | // 3 // अत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी ? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ? ||3|| II संस्कृत-छाया अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, नास्ति मे आत्मा औपपातिकः, कोऽहमासम् ? को वा इतश्च्युत इह प्रेत्य भविष्यामि ? III शब्दार्थ : मे आया-मेरी आत्मा / उववाइए अत्थि-औपपातिक-उत्पत्तिशील है / या, मे आयामेरी आत्मा / उववाएइ नत्थि-उत्पत्तिशील-जन्मातन्र में संक्रमण करने वाली नहीं है / के अहं आसि-मैं (पूर्व भव में) कौन था ? वा-अथवा / इओ चुए-यहां से मरण पाकर अर्थात्यहां के आयुष्कर्म को भोग कर / इह-इस संसार में / पेच्चा-परलोक जन्मान्तर में / के भविस्सामि-क्या बनूंगा ? IV सूत्रार्थ मेरी आत्मा जन्मांतरसे आई हुई है, ? अथवा तो क्या मेरी आत्मा जन्मांतरसे नहि आई है, ? मैं कौन हुं ? मैं यहांसे मर कर जन्मांतरमें क्या बढुंगा ? (यह ज्ञान-संज्ञा कितनेक जीवोंको नहिं है...) ||3|| . V टीका-अनुवाद : मेरे इस शरीरका अधिष्ठायक आत्मा जन्मान्तरसे आकर उत्पन्न हुआ है या नहिं ? इस प्रकारकी संज्ञा = ज्ञान कितनेक अज्ञानी जीवोंको नहिं होता, तथा मैं कौन हुं ? अर्थात् गये
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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