________________ श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका # 1 - 1 - 1 - 2 // होती / कतिपय दार्शनिक ज्ञान को स्व-प्रकाशक नहीं, परन्तु पर-प्रकाशक मानते हैं / उनका कहना है कि आत्मा अपने ज्ञान से स्वयं को नहीं जानता, परन्तु पर को जानता है जैसेआंख दनिया के दृश्यमान पदार्थों का अवलोकन करती है, परन्तु अपने आप को नहीं देखती। इसी तरह ज्ञान भी अपने से इतर सभी द्रव्यों को, पदार्थों को देखता-जानता है / परन्तु अपना परिज्ञान उसे नहीं होता / अपने आप को जानने के लिए इतर ज्ञान की अपेक्षा रखता है / परन्तु, जैनदर्शन की मान्यता है कि ज्ञान स्व-प्रकाशक भी है और पर-प्रकाशक भी। जो ज्ञान अपने आपको नहीं जानता है, वह दूसरे पदार्थ का भी अवलोकन नहीं कर सकता। वही ज्ञान अन्य द्रव्यों को भली-भांति देख सकता है कि- जो अपने आपको भी देखता है / जैसे दीपक का प्रकाश अन्य पदार्थो के साथ स्वयं को भी प्रकाशित करता है / ऐसा नहीं होता कि दीपक के अतिरिक्त कमरे में स्थित अन्य सभी पदार्थ तो दीपक के उजेले में देख लें और उस जलते हुए दीपक को देखने के लिए दूसरा दीपक लाएं / जो ज्योतिर्मय दीपक सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है, वह अपने आप को भी प्रकाशित करता है / उसे देखने के लिए दूसरे प्रकाश को लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती / इस तरह आत्मा अपने ज्ञान से स्वयं को भी जानता है और उस ज्ञान से अन्य द्रव्यों का भी परिज्ञान करता है / यों कहना चाहिए कि वह अपने को देखकर ही इतर द्रव्यों या पदार्थों को देखता है / . हम सदा-सर्वदा देखते हैं कि बहिनें भोजन तैयार करके दसरों को परोसने-खिलाने के पहले स्वयं चाख लेती हैं / यदि उन्हें स्वादिष्ट लगता है, तो वे समझ लेती हैं कि भोजन ठीक बना है, परिवार के सभी सदस्यों को अच्छा लगेगा / यदि ज्ञान स्वसंवेदक या स्वप्रकाशक नहीं होता तो बहिनों को यह ज्ञान कैसे होता कि यह भोजन सबको स्वादिष्ट लगेगा। परन्तु, ऐसा संवेदन प्रत्यक्ष में होता है और हम प्रतिदिन देखते हैं / इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञान स्वप्रकाशक भी है / वह भोजन को चाख कर जब यह निर्णय कर लेती है कि भोजन ठीक बना है, तो वह अपने इसी निर्णय से जान लेती हैं कि यह खाद्य पदार्थ सब को पसन्द आ जाएगा / जो वस्तु मुझे स्वादिष्ट एवं आनन्दप्रद लगती है, वह दूसरों को भी वैसी प्रतीत होगी / क्योंकि उन में भी मेरे जैसी ही आत्मा है, और वह भी मेरे जैसी अनुभूति एवं संवेदन युक्त है / इस तरह स्व के ज्ञान से पर के ज्ञान की स्पष्ट अनुभूति होती है / आगमों में भी कहा है-सब प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, सुख सब को प्रिय है, इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि वह किसी भी प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा-घात न करे न दूसरों से करावे और न हिंसा करने वाले का समर्थन करे, इस के अतिरिक्त दशवैकालिक सूत्र में बताया है कि जो अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी आत्मा को जानता है और राग-द्वेष में समभाव रखने वाला है, वही पूज्य है / अपनी आत्मा से आत्मा को जानने का तात्पर्य है कि अपनी तातमय आत्मा से अपने स्वरूप को जानना-समझना / इन सब से यह स्पष्ट होता है कि