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________________ // 1-1-1-2 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आत्मा ज्ञानमय है और-ज्ञान स्वप्रकाशक भी है / उसे अपने बोध के साथ दूसरे का भी परिबोध होता है / __ इस से स्पष्ट है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है / जीव का लक्षण बताते हुए आगम में कहा है कि "जीवो उवओगलक्खणो" अर्थात्-जीव का उपयोग लक्षण है / वह उपयोग १-ज्ञान, २-दर्शन, 3-सुख और ४-दुःख रूप से चार प्रकार का है / इस प्रकार भी कहा गया है कि 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग' ये जीव के लक्षण है / उक्त दोनों गाथाओंमें सुख-दुःख का संवेदन एवं चारित्र तथा तप का आचरण व्यवहार दृष्टि से जीव का लक्षण बताया गया है / सुख-दुःख का संवेदन वेदनीय कर्मजन्य साता-असाता या शुभ-अशुभ संवेदन का प्रतीक होने से समस्त जीवों में और सदा काल नहीं पाया जाता / क्योंकि यह संवेदना कर्मजन्य है, अतः कर्म से आबद्ध संसारी जीवों में ही इसका अनुभव होता है और वह अनुभूति भी संसार . ' अवस्था तक ही रहती है / इसी तरह चारित्र एवं तप भी सभी जीवों में सदा-सर्वदा विद्यमान नहीं रहता / क्योंकि चारित्र अर्थ है-आत्मा में प्रविष्ट कर्मसमूह को निकालने वाला अर्थात् आत्मभवन में निवसित कर्मसमह को खाली करनेवाला / इससे यह भली भांति स्पष्ट हो गया है कि चारित्र तभी तक है, जब तक कर्मों का प्रवाह प्रवहमान है / जिस समय जीव-आत्मारूपी सरोवर कर्मरूपी पानी से सर्वथा खाली हो जाता है तब फिर चारित्र की अपेक्षा नहीं रहती है / अस्तु, चारित्र की आवश्यकता साधक अवस्था में है, न कि सिद्ध अवस्था में / इसलिए चारित्र भी व्यवहार की अपेक्षा जीव का लक्षण है / तप चारित्र का ही भेद है, इसलिए वह भी आत्मा में सदा सर्वदा नहीं पाया जाता / परन्तु ज्ञान, दर्शन और वीर्य ये आत्मा में सदा सर्वदा पाए जाते हैं / इसलिए वीर्य और उपयोग को आत्मा का निश्चय रूप से लक्षण कहा गया है / ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य का आत्मा में सदा सद्भाव रहता है / यह बात अलग है कि कर्मों के साधारण या प्रगाढ़ आवरण से आत्मज्योति का या अनंत चतष्क का कछ या बहुत सा भाग आवृत हो जाए, परंतु उसके अस्तित्व का सर्वथा लोप एवं विनाश नहीं होता। यहां जीव के छह () लक्षण सिद्धात्मा में इस प्रकार घटित हो पाएंगे। केवलदर्शन (1) ज्ञान - (3) चारित्र - (5) वीर्य - केवलज्ञान (2) दर्शन - यथाख्यातचारित्र (4) तप - अनन्तवीर्य (6) उपयोग - शुक्लध्यान ज्ञानदर्शनोपयोग.. तथा संसारी जीव में छह (6) लक्षण इस प्रकार प्राप्त होंगे... (1) ज्ञान क्षायोपशमिक मति आदि... (2) दर्शन - चक्षुर्दर्शनादि
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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