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________________ 56 1 - 1 - 1 - 2 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मैं कौनसी दिशासे आया हूं ? इससे प्रज्ञापक दिशाका ग्रहण किया गया है... जिस प्रकार कोइक मनुष्य मदिराके मदसे चंचल आंखोवाला अतः एव अस्पष्ट समझवाला वह मनुष्य मार्गमें गिरा हुआ अतः एव कुत्ते उसके मुंहको चाटते हैं ऐसे मनुष्यको घरमें लानेके बाद जब मद उत्तर जाता है तब वह यह पूर्वोक्त बातोंको जिस प्रकार नहिं जानता, बस इसी हि प्रकारसे संसारी जीव भी यह नहिं जानता कि मैं कहांसे आया हु... केवल यह संज्ञा नहिं है ऐसा नहिं किंतु और अन्य संज्ञा भी नहिं होती, यह बात सूत्रकार स्वयं हि आगे के सूत्रसे कहेगें... VI सूत्रसार : __ आत्मा में अनन्त चतुष्क अर्थात् १-अनन्त ज्ञान, २-अनन्त दर्शन, 3-अनन्त चारित्र, . और ४-अनन्त वीर्य है / सिद्ध आत्माओं में ही नहीं, प्रत्युत संसार में स्थित प्रत्येक आत्मा में इन शक्तियों की सत्ता-अस्तित्व मौजूद है / फिर भी अनन्त काल से कर्मप्रवाह में प्रवहमान होने के कारण यह आत्मा संसार में इधर-उधर परिभमणा करती रहती है. चार गति-चौरासी लाख जीवयोनि में घूमती-भटकती है, कभी उर्ध्व दिशा में उड़ान भरती है, तो कभी अधोदिशा की और प्रयाण करती है / कभी पूर्वदिशा की और बढ़ती है, तो कभी अस्ताचल-पश्चिमदिशा की और जा पहुंचती है / कभी उत्तरदिशा की तरफ गतिशील होती है, तो कभी दक्षिण दिशा का रास्ता नापती है / इस तरह कर्मबद्ध आत्मा संसार की इन सब दिशा-विदिशाओं में घूमती फिरती है / इस भव भमण का मूल कारण कर्म-बन्धन है और कर्मबन्धन का मूल रागद्वेष है / जब तक आत्मा में राग-द्वेष की परिणति है, तब तक वह कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकती / क्योंकि राग-द्वेष कर्मरूपी वृक्ष का बीज है, मूल है / जब तक बीज या मूल सुरक्षित है, स्वस्थ है, तब तक वृक्ष धराशायी नहीं हो सकता / यदि पूर्व फलित शाखाप्रशाखाओं को काट भी दिया गया, तब भी मूल के सद्भाव में वृक्ष का पूर्णतया नाश-विनाश नहीं हो सकता / मूल हरा भरा है / तो वह पुनः अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो उठेगा / यही स्थिति कर्मवृक्ष की है / पूर्व कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं, क्षय हो जाते हैं, परन्तु उनका मूल रागद्वेष मौजूद रहता है, इससे उनका समूलतः नाश नहीं होता / पूर्व कर्मों की निर्जरा होती है तो नए कर्मों का बन्ध हो जाता है / इस तरह एक के बाद दूसरा प्रवाह प्रवहमान ही रहता है / अस्तु, कर्म के मूल राग-द्वेष का क्षय किए बिना कर्मवृक्ष का समूलतः नाश नहीं होता, और उसका पूर्णतः नाश हुए बिना आत्मा भव-भ्रमण के चक्कर से छुटकारा नहीं पा सकती / आस्तिक माने जाने वाले सभी दार्शनिकों का विश्वास है कि आत्मा ज्ञानस्वरुप है, परन्तु ज्ञान को स्व-प्रकाशक मानने के संबन्ध में दार्शनिकों में एकरूपता परिलक्षित नहीं
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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