________________ है, अथवा न कोई प्रथा है, केवल पवित्र परमात्मा का राजमार्ग है। .योगशतककार आचार्य हरिभद्र श्रमण-शिक्षण संस्कारों के शुभ प्रयोग का वर्णन करते है। श्रुत-संस्कारों के सुपात्र को गुरुकुलवास अनिवार्य मानना चाहिए साथ में गुरु आज्ञा में रहने का मन्तव्य महत्त्वपूर्ण भाव से स्वीकार लेना चाहिए इतना होते हुए भी उचित विनय पर जीवन व्यवहार को विशद रखते हुए स्वयं अपने हाथों से गुरुकुल की स्वच्छता एवं काल-क्रियाओं का समुचित आचार पालते हुए ज्ञानयोग का, राजयोग का एवं आत्मयोग का जीव अधिकारी हो सकता है। अपने आत्मबल को नहीं छिपाते हुए सदैव बलवान् रहने की चाहना बनाये रखे और गुरु अनुग्रह को अनवरत चाहता हुआ साधक अपने योगमार्ग पर गति करता रहे। __योग की शुद्धि में धर्म अविरोधि शुभ चिन्तनों से मानसिक संशोधन करता योग शुद्धिओं को कर सकता है। कर्मयोग मात्र एक क्रिया है, गुरुशरण और तप मोहविष विनाशक अनुभव सिद्ध स्वाध्याय मूल मंत्र है इस प्रकार योगशतक में आचार्य श्री ने इस विषय को इस प्रकार समुल्लेखित किया है। आत्म दूषण दोषों के प्रति दूर दृष्टि रखते हुए कर्मोदय जनित परिणामों पर सहिष्णुभाव को समर्थन देते हुए योगमार्ग में युक्त बने रहे। आचार्य श्री चित्तरत्न की शुद्धि के लिए विशेष लक्ष्य देते है। जीवन के अन्तिम क्षणों में चित्तरत्न को एकदम निर्मल बनादो और परमात्म आज्ञा में अविपरीत भाव से रहने का निर्णय करलो, इससे संसारका विरह हो जायेगा। यह संसार क्षार पानी जैसा है, तत्त्वश्रुती का संबोध मधुर जल जैसा है। तत्त्वश्रुति का संलाप गुरु भक्ति से उपलब्ध हो सकता है और यह दोनों लोको के हितकारी है गुरु भक्ति के प्रभाव से तीर्थंकर दर्शन का तीर्थंकर सिद्धान्तों का समभ्यास श्रेष्ठतर बनता और वही निर्वाण का निबन्धन है। अपने दोषों को दर्शित कराने वाला ही श्रुत है, वह दीप तुल्य है जो तात्त्विकता का तेजोमयदर्शन करवाता है। इस संसार में भवाभिनन्दी शुद्र जीव शठमत्सरी बने हुए इनका नियम से संघ समुचित न माने, क्योंकि यह विष मिश्रित अन्न जैसा है। आदर हमेशा योग्य के लिए होता है क्योंकि आदरणीय ही ज्ञानदान का अधिकारी होता है इस प्रकार योगदृष्टि में आचार्य श्री कहते है। - श्रेय की उपलब्धि और विघ्नों की अशान्ति के लिए निर्दृष, निक्र्लेश भाव से प्रयत्नपूर्वक और विधिपूर्वक ज्ञानदान देना चाहिए। इस प्रकार योग की संकलना स्व एवं परहित साधने में सफल हुई है। संस्कृत के साथ प्राकृत को प्राथमिकता :- प्राकृत साहित्य के इतिहास में आचार्य हरिभद्र का योगदान अविस्मरणीय रहा है, उन्होंने प्राकृत शैली को प्राञ्जल बनाने में परिपूर्ण दायित्व निभाया है। जैनागमों का मूल स्वरूप अर्धमागधी प्राकृत में प्रायः प्ररूपिः मिलाता है, पूर्वलोंसे मिले हुए भाषा वैभव को व्युत्पन्न विशेष सारवान् बनाने का भगीरथ पुरुषार्थ आचार्य श्री हरेभद्र का रहा है वे एक मर्यादित मेधावी महाश्रमण थे। उनके समग्र जीवन में भाषा विज्ञान विकस्वर रूप से विद्यमान रहा है। संस्कृत में वे एक सिद्धहस्त लेखक थे तो [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रथम अध्याय