________________ योगविंशिका जो नवनीत एवं अमृत स्वरूप है। योगबिन्दु जैसे ग्रन्थों में आत्म-कल्याण चाहनेवाले को स्वहित का लक्ष्य रखकर मोक्ष के हेतुभूत योग की साधना करनी चाहिए। ____योग के साधक में योग की योग्यता स्वभाविक होनी चाहिए अन्यथा वह योगमार्ग पर चल नहीं सकता है, स्थिर नहीं बन सकता / लोकसिद्ध बात को योगमार्ग में लाते हुए अपनी आत्म योग्यता का समुल्लेख सुंदर ढंग से किया है पूर्व पारंपरिक जन्मान्तरीय योग में से योग विद्या का प्रादुर्भाव होता है अथवा पुरुषार्थ के बल पर व्यक्ति योगशक्ति को समुद्भवित करता है। लोकशास्त्र के विरुद्ध योग को आचार्यश्री ने महत्त्व नहीं दिया एवं अंधश्रद्धा से भी अंगीकार नहीं किया।यह योगमार्ग मात्र शोध का विषय है, बोध का विषय है अत: शोध-बोध द्वारा संसेव्य बनाते हुए यहाँ पर अपनी आत्मयोग्यता को योगशक्ति सहित समुद्भवित रखना है। आगमों के उचित अनुयोगों से योगमार्ग परिलक्षित होता है इस योगमार्ग में अध्यात्मभाव, ध्यानवृत्ति, समत्वयोग और वृत्तियों का संक्षय ये मोक्षमार्ग के अङ्ग है ऐसा योगबिन्दु में कहा है अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय। मोक्षण योजनाद्योग, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् // 6 योगबिन्दु में आचार्यश्री कहते है कि शास्त्रसेवन भक्तिमय भाव से करते रहो यही भक्ति तुम्हारी मुक्तिदूती बनती जायेगी, ऐसा जगत के वन्दनीय तीर्थकरोंने कहा है उनके कथन में सारभूतता यही है कि आप जितने शास्त्रों के समीप में रहने का संकल्प बनाते रहोगे उतना ही आपका योगमार्ग विशुद्ध बनता जायेगा। योग मार्ग में सामीप्य केवल शास्त्रों का चाहिए, योगमार्ग को शास्त्र अनुमोदित बतलाते हुए स्वहित में उद्यत रहनेवाले व्यक्तियों को माध्यस्थभाव से अपनी आत्म विचारणा करते हुए स्वयं ही योगमार्ग पर अभिरूढ़ होना चाहिए। आचार्य हरिभद्र स्वकीयता के सम्मोह से मुक्त बने, परकीय परद्वेष से रहित रहते हुए श्रेष्ठतम ऐसे विद्वान् बनकर योगमार्ग पर आये। उनका मति मन्थन बड़ा ही मौलिक रहा है जो दृष्ट है, इष्ट है, अबाधित है उसको स्वीकार करने में किसी प्रकार सर्वथा संकोच नहीं करना चाहिए, यही योगमार्ग का रहस्य है। इस योगबिन्दु का जो पुण्य मुझे मिले वह यही होगा कि जिससे अन्यों की भलाई हो परहित में आत्महित माननेवाले मनीषी हरिभद्र योगबिन्दु का शुभ पुण्यकर्म का फल यही चाहते है। प्रत्येक व्यक्ति संसार में मोहान्ध बनकर नहीं भटकता हुआ योग दृष्टि वाला बनकर योगमार्ग पर गति करता रहे। योगविंशिका में आचार्य हरिभद्र कर्मयोग और ज्ञानयोग इन दोनों के स्वरूप का सही परिचय देते हुए आत्म उन्नति का योगमार्ग चित्रित करते है। योग एक आलंबन है आत्मस्वरूप को सही स्थान में स्थिर करनेवाला एक सौध (राजमहल) है / इसमें न भय है, न भेद है, नहीं भूत-भविष्य वर्तमान की कोई व्याख्या है अथवा कथा | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व र प्रथम अध्यायं | 42