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________________ प्राकृत में उनका पांडित्य प्रखर रूप में प्रकाशित हो रहा था मानो एक तराजू के दोनों समान पल्ले हो। ___ संस्कृत भाषा में इन्होंने अनेक साहित्य ग्रन्थों की रचना की जो आज हमारे सामने प्रत्यक्ष रूप में प्रसिद्ध है प्राकृत की रचनाओं में उन्होंने कहीं कहीं पर तो ऐसा अद्भुत लेखनी कौशल चित्रित किया है जिसको आज भी पढ़ते हुए हम गद्गद् हो जाते हैं। प्राकृत भाषा की प्रौढ़ता को प्रत्येक अपने साहित्य में परिणत करते हुए श्रद्धेय पाण्डित्य को प्रकट किया है उनकी सबसे बड़ी भाषा सिद्धि प्राकृत भाषा रचित ग्रन्थ-धर्मसंग्रहणी, समराइच्चकहा, पंचवस्तुक, संबोधप्रकरण, धूर्ताख्यान आदि ग्रन्थों में प्रतिष्ठित है तथा जिस की रचना कर प्राकृत को भी उन्होंने प्रधानता प्रदान की है। प्राकृत भाषा के ग्रन्थों की रचना करके पूर्वाचार्यों के प्रति अहोभाव प्रदर्शित किया है। गणधर भगवंत सर्वजन हिताय प्राकृत सूत्रों की रचना करते है उसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर आचार्यश्री अज्ञानी, बाल जीवों को भी सुबोध गम्य बन सके अत: ग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में की। उनका लक्ष्य एक ही था कि प्रत्येक जीव मेरे भावो को जानकर स्वहित साधे इस परोपकारवृत्ति ने ही उन्हें ऐसे महान् ग्रन्थों को लिखने में प्रेरित किये। ___ विषय-कषाय की अग्निज्वाला में जलते हुए प्राणिओं पर शम और वैराग्य की शीतल जलधारा की वर्षा के लिए आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने “समराइच्चकहा" नामक संवेग वैराग्य से उछलते हुए तरंगो से भरपूर एक ऐसा ग्रन्थ लिखा जो प्राकृत भाषा के साहित्य में अपना प्रतिस्पर्धी नहीं रखता और जिसे निर्विवाद रुप से प्राकृतभाषा के भाण्डागार की सर्वोच्च निधि कहा जा सकता है। ___भाषा को भूषित करने में उनका समीहित, इच्छित विद्याध्ययन विशेष रूप से परिक्षित होता है संस्कृत. में समुत्पन्न हुए और प्राकृत परम्परा को प्रतिष्ठित रखने में उन्होंने आजीवन लक्ष्य को लक्षित रखा। पूर्वाचार्यों के पारम्पारिक प्राकृत भाषा के आस्थेय रूप को आत्मसात् किया और स्वयं प्राकृतभाषी बनकर प्राकृत-साहित्य को विराट रूप देने में दत्तचित्त रहे। धूर्ताख्यान जैसे ग्रन्थ को भी प्राकृतभाषा में परिष्कृत कर अपनी प्राकृत प्रियता को प्रस्थापित किया। प्रौढ़-ग्रन्थों में प्राकृत को पुरस्सर करते हुए आपने अपनी अद्वितीय प्रतिभाको प्राकृत परम विज्ञान के रूप में प्रस्फुटित किया है। . श्रुत-शास्त्रों का समदर्शित्व रूप से संदोहन :- श्रुतधर आचार्य हरिभद्र ने श्रुतों का संदोहन समदर्शित्व रूप से किया है। श्रुत को कामदुग्धाधेनू रूप से सेवित करते हुए स्वयं को संतुष्ट परिपुष्ट रखने का प्रयास करते रहे है। जिस प्रकार गोपाल संतुलित समुचित होकर अपनी धेनु का संदोहन करता है और धेनु सवात्सल्य भाव से परिपूर्ण होकर पयः स्त्रोतों को प्रवाहित करती है वैसे ही श्रृतधेन ने आचार्य को सवात्सल्य भाव से आद्रितकर श्रुतधाराओं को उनके मानस में और उनकी मेधा में प्रवाहित कर दी। एक ऐसे संतुलित श्रुत के संगोपालक बनकर अष्टकप्रकरण में “षोडशकप्रकरण' में श्रुत सरिता को संवाहिता बनाली। श्रुत मातृरूप में सुवत्स बनकर मातृ महात्म्य को पयः प्रज्ञानों में परिणत करने का उन्होंने प्रेमाद्र भाव प्रगट किया जो स्वयं वत्स के वात्सल्य पर न्यौछावर होती है। उसको निष्णात बना देती है। नयवाद | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIII VA प्रथम अध्याय | 44
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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